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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७० श्री विपाक सूत्र [ दूसरा अध्याय गणिका के । गेहातो-घर से । णिच्छन्भमाणे समाणे-निकाला हुआ । कामझयाए गणियाएकामध्वजा गणिका में । मुच्छिते मूर्छित-उसी के ध्यान में पगला हुअा २ । गिद्धे -- गृद्ध - आकांक्षा वाला । गढिते- ग्रथित-स्नेह जाल में बंधा हुा । अज्झोववन्ने-अध्युपपन्न अर्थात् उस में आसक्त हुअा २ | अन्नत्य कथइ- और कहीं पर भी । सुईच-स्मृति -- स्मरण अर्थात् उसे प्रतिक्षण उसी का स्मरण - याद रहता है, वह किसी और का स्मरण नहीं करता । रतिं च- रतिप्रीति अर्थाद् उस वेश्या के अतिरिक्त उस का कहीं दूसरी जगह प्रेम नहीं है । धितिं च - धृति--मानसिक स्थिरता अर्थात् उस वेश्या के सानिध्य को छोड़ कर उस का मन कहीं स्थिरता एवं शान्ति को प्राप्त नहीं होता है. ऐसा वह उज्झितक कुमार स्मृति, रति और धृति को । अविंदमाणे - प्राप्त न करता हुआ। तच्चित्ते-तद्गतचित्त-उसी में - गणिका में चित्त वाला तम्मणे - उसी में मन रखने वाला । तल्लेसे-तविषयक परिणामों वाला। तदभवसाणे तविषयक अध्यवसाय अर्थात् भोगक्रिया सम्बन्धी प्रयत्न विशेष वाला । तदट्टोवउत्त-उसकी प्राप्ति के लिये उपयुक्त उपयोग रखने वाला । तयप्पियकरणे-उसी में समस्त इन्द्रियों को अर्पित करने वाला अर्थात् उसी की ओर जिस की समस्त इन्द्रियें आकषित हो रही हैं । तब्भावणाभाविते - उसी की भावना करने वाला तथा । कामझयाए-कामध्वजा । गणियाए-गणिका के । बहूणि अंतराणि य-अनेक अन्तर अर्थात् जिस समय राजा का आगमन न हो । छिदाणि य-छिद्र - अर्थात् राजा के परिवार का कोई व्यक्ति न हो। विवराणि-विवर-कोई सामान्य मनुष्य भी जिस समय न हो । पडिजाग रमाणे-ऐसे समय की गवेषणा करता हुआ । विहरति-विहरण कर रहा था । मूलार्थ-तदनन्तर उस विजयमित्र नामा महीपाल-राजा की श्री नामक देवी को योनिशूलयोनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग विशेष उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र नरेश राणी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोगों के सेवन में समथ नहीं रहा । तदनन्तर अन्य किसी समय उस राजा ने उम्भितक कुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान में से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या को अपने भीतर अर्थात् अन्तःपुर-रणवास में रख लिया और उसके साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार-प्रधान विषय-भोगों का उपभोग करने लगा। तदनन्तर कामध्वजा गणिका के गृह से निकाले जाने पर कामध्वजा वेश्या में मूच्छित --उस वेश्या के ध्यान में ही मूढ़-पगला बना हुआ, गृद्ध-उस वेश्या की आकांक्षा - इच्छा रखने वाला, ग्रथितउस गणिका के ही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ, और अध्युपपन्न -उस वेश्या को चिन्ता में अत्यधिक व्यासक्त रहने वाला वह उज्झितक कुमार और किसी स्थान पर भी स्मृति-स्मरण, रति-प्रीति और धृतिमानसिक शांति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त और मन लगाए हुए, तद्विषयक परिणाम वाला, तत्सम्बन्धी काम भोगों में प्रयत्न -शोल, उस की प्राप्ति के लिए उद्यत-तत्पर और तदपितकरण अर्थात् जिस का मन वचन और देह ये सब उसी के लिए अर्पित हो रहे हैं, अतएव उसी की भावना से भावित होता हुआ २ कामध्वजा वेश्या के अन्तर, छिद्र और विवरों की गवेषणा करता हुआ जीवन बिता रहा है। टीका-प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में यह वर्णन कर चुके हैं कि-वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध नगर था, महाराज मित्र वहां राज्य किया करते थे। उन की महाराणी का नाम श्री देवी था। दोनों वहां सानन्द जीवन बिता रहे थे। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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