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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [८७ टीका -- धाय माता के द्वारा सर्वांगविकल जन्मान्ध पुत्र का जन्म तथा उसे बाहिर फिकवा देने सम्बन्धी मृगादेवी का अनुरोध आदि सम्पूर्ण खेदजनक वृत्तान्त को सुनकर विजय नरेश किंकर्तव्य विमूढ़ से हो गये, हैरान से रह गये, उन का मन व्याकुल हो उठा। उन्हों ने धायमाता को कुछ भी उत्तर न देते हुए उसी समय सीधा मृगादेवी की ओर प्रस्थान किया । मृगादेवी के पास आकर उसे आश्वासन देते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है। मेरे विचार में इसे बाहिर फेंकना तुम्हारे लिये हितकर न होगा । यदि तुम इसे बाहर फिकवाने का साहस करोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा-अागामी सन्तति को हानि पहुंचेगी, वह चिरस्थायी नहीं होगी। अतः तुम इस बच्चे को किसी गुप्त भूमीगृह में रखकर गुप्तरूप से इसके पालन पोषण का यत्न करो ताकि इस पुण्यकर्म से तुम्हारी भावी प्रजा को चिरस्थायी होने का अवसर प्राप्त हो, मेरी दृष्टि में यह उपाय ही हितकर है । महाराज की इस सम्मति को प्राज्ञारूप समझकर महाराणी मृगादेवी ने बड़े नम्रभाव से स्वीकार किया और उनके कथनानुसार मृगापुत्र का यथाविधि पालन पोषण करने में प्रवृत्त हो गई । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम अनगार से कहा कि हे गौतम ! तुम्हारे पूर्वोक्त प्रश्न ".-- भगवन् ! यह मृगापुत्र पूर्वजन्म में कौन था ? --" इत्यादि का यह उत्तर है । इस से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि पुराकृत पापकर्मों के कारण ही कटुफल का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता हुआ यह मृगापुत्र अपने जीवन को बिता रहा है । इस कथा सन्दर्भ में विजय नरेश की धार्मिकता और दयालुता की जितनी सराहना की जावे उतनी ही कम है । “जीवन देने से ही जीवन मिलता है। इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार मृगापुत्र को जीवन दान देने का फल यह हुआ कि उसके बाद मृगादेवी ने अन्य चार पुत्रों को जन्म दिया और वे सर्वांगसम्पूर्ण रूपसौन्दर्ययुक्त और विनीत एवं दीर्घायु हुए। जिस जीव ने पूर्व भव में जितना आयुष्य बान्धा है उतने का उपभोग करने में उसे कर्मवाद के नियमानुसार पूरी स्वतन्त्रता है । उस में किसी को हस्ताक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है । अयवा यूँ कहिये कि कर्मवाद के न्यायालय में आयुकर्म की ओर से इस प्राणी को। फिर वह मनुष्य अथवा पशु या पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो] जितना जीवन मिला है उस के व्याघात का उद्योग करना मानो न्यायोचित आज्ञा का विरोध करना है, जिसके लिये कर्मवाद की ओर से यथोचित दण्ड का विधान है। इसी न्यायोचित सिद्धान्त की भित्ति पर अहिंसावाद के भव्य प्रासाद का निर्माण किया गया है । जिसके अनुसार किसी के जीवन का अपहरण करना मानों अात्म अपहरण करना ही है। क्यों कि जीवन का इच्छुक पर-जीवन का घातक कभी नहीं हो सकता । जैन परिभाषा के अनुसार भाषमूलक द्रव्यहिंसा ही कर्म बन्धन का हेतु हो सकती है, इस लिये हिंसा के भाव से हिसा करने वाला मानव प्राणी पर की हिसा करने से पूर्व अपने आत्मा का अवहनन करता है ऐसे ही प्राणी शास्त्रीय दृष्टि से अात्मघाती माने जाते हैं । विजय नरेश के अन्दर धर्म की अभिरुचि थी। महापुरुषों के सहवास में उसके विवेक चक्षु कुछ उघड़े हुए थे । अहिंसा-तत्त्व को उस ने खूब समझा हुआ था। इसी के फलस्वरूप उसने महाराणी मृगादेवी को तत्काल के जन्मे हुए उक्त बालक को बाहिर फेंकने के स्थान में उसके संरक्षण की सम्मति दी। जिस से उस के पापभीरु अात्मा को सन्तोष प्राप्त होने के अतिरिक्त मृगादेवी की आत्मा को भी भारी सान्त्वना मिली। पाठक अभी यह भूले नहीं होंगे कि भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में उपस्थित होने वाले एक जन्मान्ध व्यक्ति को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान् से .. - प्रभो ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो जन्मान्ध (नेत्र का आकार होने पर भी नेत्रज्योति से हीन) होने के साथ साथ जन्मान्धकरूप (नेत्राकार से रहित) भी For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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