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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [प्रथम अध्याय खलु गोयमा ! मियापुत्त दारए 'पुरा पोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरति । पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । से विजए-वह विजय नरेश । तीसे-उस । अम्म० - धाय माता के । अंतिते-पास से यह । सोच्चा -सुन कर । तहेव-तथैव अर्थात् जिस रूप में बैठा था उसी रूप में । संभंते-सम्भ्रान्त-व्याकुल हुा । उट्ठाते-उठकर । उद्वेति-खड़ा होत है । उठत्ता-खड़ा हो कर । जेणेव-जहां . मियादेवी- मृगादेवी थी । तेणेव-वहीं पर उवागच्छति-पाता है । २ त्ता--आकर । मियं देविं--मृगादेवी को । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणु ! - हे देवानुप्रिये ! । तुझ--तुम्हारा यह । पढमगब्भे-प्रथम गर्भ है । तं जइ णं तुम---इसलिये यदि तुम । एयं -- इस को । एगंते -- एकान्त । उक्कुरुड़ियार- कूड़े कचरे के ढेर पर । उज्झसि-फैंक दोगी। तो णं - तो । तुझ पया तेरी प्रजा ---सन्तति । नो थिरा भवि संति- स्थिर नहीं रहेंगी । तेणं- अतः । तुम -- तुम । एवं दारगं- इस बालक को। रहस्सियंसिगुप्त । भूमी-घरंसि-भूमि गृह में । रहस्सितेणं- गुप्त । भत्तपाणेणं-भक्त पान-आहारादि से । पडिजागरमाणी--सेवा-पालनपोषण करती हुई । विहराहि-विहरण करो, समय व्यतीत करो तो णं - तब । तुझ पया-तुमारी प्रजा-सन्तान । थिरा- स्थिर-चिर स्थायी। भविस्संतिरहेंगी । तते णं-- तदनन्तर । सा मियादेवी--- वह मृगादेवी । विजयस्स - विजय । खत्तियस्सक्षत्रिय के। एयमटुं- इस कथन को । तहत्ति-स्वीकृति सूचक "तथेति' (बहुत अच्छा) यह कहती हुई । विणएणं---विनय पूर्वक । पडिसुणेति--स्वीकार करती है । २ ता-स्वीकार करके । तं दारगं-उस बालक को। रह० ---- गुप्त । भूमिघर०-भूमि गृह में । भत्त०-आहारादि के द्वारा । पडिजागरमणी-पालन पोषण करती हुई । विहरति-समय व्यतीत करने लगी । गोयमा !हे गौतम ! । एवं खनु-इस प्रकार निश्चय ही । मियापुत्त-मृगापुत्र नामक । दारए - बालक पुरा-प्राचीन । पुराणाणं-पूर्व काल में किये हुए कर्मों का। जाव-यावत् । पच्चणुभवमाणे-- प्रत्यक्ष रूप से फलानुभव करता हुआ । विहरति-समय बिता रहा है। मलार्थ-तदनन्तर उस धायमाता से यह सारा वृत्तान्त सुनकर संभ्रांत-व्याकुल से हो विजय नरेश जैसे ही बैठे थे वैसे उठ कर खड़े हो गये और जहां पर मृगादेवी थी वहां पर आये आकर उस से इस प्रकार बोले कि हे भद्रे ! यह तुम्हारा प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको किसी एकान्त स्थान में अर्थात कूड़े कचरे के ढेर पर फिंकवा दोगी तो तुम्हारी प्रजा-सन्तान स्थिर नहीं रहेंगी, अत: फैकने की अपेक्षा तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह (भौंरा) में रखकर गुप्त रूप से भक्तप नादि के द्वारा इस का पालन पोषण करो । ऐसा करने से तुम्हारी भावी प्रजा-आगामी सन्तति स्थिर-चिरस्थायी रहेगी । तत्पश्चात् मृगादेवी ने विजय नरेश के इस कथन को विनय पूर्वक स्वीकार किया, और वह उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्त रूप से आहार-खान पान आदि के द्वारा उस का संरक्षण करने लगी । भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार मृगापुत्र स्वकृत पूर्व के पाप कर्मों का प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ समय बिता रहा है। (१) "पुरा पोराणाणं' त्ति पुरा पूर्वकाले "कृतानाम्" इति गम्यम् अत एव "पुराणानां" चिरन्तनानाम् । इह च यावत्करणात् - "दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्मारणं पावगं फलवित्तिविसेस-इति द्रष्टव्यमिति भावः । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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