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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [८५ प्रकार का भी क्यों न हो ] केवल उसकी माता के कह देने मात्र से बाहिर फैंक देना पूरा २ खतरा मोल लेना है । इस लिये जब तक इसके पिता विजय नरेश को इस घटना से अवगत न किया जाय और उनकी आज्ञा प्राप्त न की जाय तब तक इस बच्चे को फेंकना तो अलग रहा किन्तु, फैकने का संकल्प करना भी नितान्त मूर्खता है और विपत्ति को आमंत्रित करना है । इन्हीं विचारों से प्रेरित हो कर उस धायमाता ने विजय नरेश को बालक के जन्म - सम्बन्धी सारे वृत्तान्त को स्पष्ट शब्दों में कह सुनाया तथा अन्त में महाराणी मृगादेवी को उक्त आज्ञा का पालन किया जाय अथवा उस से इनकार कर दिया जाय इसका यथोचित आदेश मांगा इस सारे सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि राजा महागजात्रों के यहां जो धायमाताय होती थीं वे कितनी व्यवहार कुशल और नीति-निपुण हुआ करती थीं तथा अपने उत्तरदायित्व को-- अपनी जिम्मेदारी को किस हद तक समझा करती थीं यह महाराणी मृगादेवी की धायमाता के व्यवहार से अच्छी तरह व्यक्त हो जाता है ।। “जातिअंधं जाव आगितिमित्तं यहां पठित "जाव-यावत” पद से .-जाइअंधे-" से आगे के "-जाइमूए -" इत्यादि सभी पदों के ग्रहण की ओर संकेत किया गया है । तथा "हुंड' शब्द का वृत्तिकार सम्मत अर्थ है--जिस के अंग प्रत्यंग सुव्यवस्थित न हों अर्थात् जिस के शरीर गत अंगोपांग नितान्त विकृत - भद्द हो उसे हुड कहते हैं। 'हुंड' त्ति अव्यवस्थितांगाश्यवम् । तथा मूलगत "भीया' पद के आगे जो ४ का अंक दिया है उसका तात्पर्य -" भीया, तत्था, उब्विग्गा, संजायभया-भीता, त्रस्ता, उद्विग्ना, संजातभया” इन चारों पदों की संकलना से है । वृत्तिकार अभयदेव सूरि के मत में ये चारों ही पद भय की प्रकर्षता के बोधक अथच समानार्थक हैं । 'भीया, तत्था, उब्विग्गा, संजायभया' भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः। तथा “उक्कुरुडिया” यह देशीय प्राकृत का पद है इस का अर्थ होता है अशुचिराशि, अर्थात् कूड़े कचरे का ढेर या कूड़ा करकट फैंकने का स्थान । धायमाता से प्राप्त हुए पुत्र जन्म-सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर विजय नरेश ने क्या किया अब सूत्र-कार उसका वर्णन करते हैं --- मूल-तते णं से विजए तीसे अम्म० अंतिते सोच्चा तहेव संभंते उट्ठाते उट्ठति उहत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छति २ मियं देवि एवं वयासी-देवाणु० ! तुझं पढ़म-गब्भे, तं जइ णं तुमं एयं एगते उक्कुरुड़ियाए उज्झसि तो णं तुझ पया नो थिरा भविस्संति, तेणं तुमं एयं दारगं रहस्सियंसि भूमीघरंसि रहस्सितेणं भत्तपाणेणं पडजागरमाणी २ विहगहि, तो णं तुझ पया थिरा भविस्संति । तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणेति २त्ता तं दारगं रह० भूमिघर० भत्त० पडि जागरमाणी विहरति । एवं (१) छापा-तत: स विजयस्तस्या अम्बा) अन्तकात् श्रुत्वा तथैव सम्भ्रान्त उत्थायोत्तिष्ठति उत्थाय यत्रैव मृगादेवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य मृगां देवीं एवमवदत् देवानः ! तव प्रथमगर्भः, तद् यदि त्वमेतमेकान्तेऽशुचिराशावुज्झसि. ततस्तव प्रजा नो स्थिरा भविष्यन्ति । तेन त्वं एतं दारकं राहस्यिके भूमीगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती २ विहर ततस्तव प्रजाः स्थिराः भविष्यन्ति । ततः सा मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य "तथेति"एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं राहस्यिके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानेन प्रतिजाग्रती विहरति । एवं खलु गौतम ! मृगापुत्रो दारक: पुरा पुराणानां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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