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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ८४] श्री विपाक सूत्र - 1 उस । हुंड - विकृतांग - भद्दो आकृति वाले । अंध - अन्धे बालक को । पासति २ ता- देखती है, देखकर । भीया - भयभीत हुई ममं मेरे को । सहावेति २त्ता - बुलाती है बुलाकर । एवं वयासी - वह इस प्रकार कहने लगी । देवा० ! -- हे देवानुप्रिये ! तुम - तुम । गच्छह णं - जाओ । एयं दारगं - इस बालक को । एगंते - एकान्त में ले जाकर उक्कुरुडिया - कूड़े कचरे के ढेर पर । उज्झाहि - फेंक दो । तं - इसलिये सामी ! – हे स्वामिन्! । संदिसह णं- - आप श्राज्ञा दें कि क्या । श्रहं मैं । तं दारगं- उस बालक को । एगंते - एकान्त में । उज्झामि -- छोड़ दू -- फेंक दू ं । उदाहु – अथवा | मा (प्रथम अध्याय नहीं । मूलार्थ - तत्वश्चात् लगभग नौ मास पूर्ण होने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यात अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया । तदनन्तर हुड - विकृतांग तथा अन्ध रूप उस बालक को देव कर भयभीत, त्रस्त, उद्वग्न-व्याकुल तथा भय से काम्नती हुई मृगादेवी ने धायमाता को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ, इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फेंक आओ । तदनन्तर वह धायनाता मृगादेवी के इस कथन को तथास्तु- बहुत अच्छा, कह कर स्वीकृत करती हुई जहां पर विजय नरेश थे, वहां पर आई और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! लगभग नौ मास के पूर्ण हो जाने पर मृग देवो ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है, उस हुंडरूप - भद्दी आकृति वाले जन्मान्ध बालक को देख कर वह भयभीत हुई और उसने मुझे बुलाकर कहा कि हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूड़े कचरे के ढेर पर फेंक आओ | अतः हे स्वामिन्! आप बतलायें कि मैं उसे एकान्त में ले जा कर फेंक आऊँ या नहीं ? टीका - कर्मराज के प्रकोप से जिस बच्चे के हाथ पांव तथा श्रख कान प्रभृति कोई भी अंग प्रत्यंग सम्पूर्ण न हो, किन्तु इनकी केवल आकृति अर्थात् आकार मात्र ही हो ऐसे हुंडरूप - नितान्त भद्दे स्वरूप वाले, मात्र श्वास लेते हुए मांस पिंड को देख कर, और जिसने गर्भस्थ होते ही मुझे पतिप्रेम से भी वञ्चित कर दिया था अब न जाने इस पापात्मा के कारण कौन २ सा मेरा अनिष्ट मृगादेवी का भयभीत - भय संत्रस्त, व्याकुल तथा भय से तथा इस प्रकार के अदृष्टपूर्व, निन्दास्पद - जिसे देखकर कारण जन्म देने वाली का अपवाद हो - पुत्र को घर होगा इत्यादि विचारों से प्रेरित होती हुई कम्पित होना कुछ अस्वाभाविक नहीं है । छोटे बड़े सभी को घृणा हो और जिस के रखने की अपेक्षा बाहिर फेंक देना हो हितकर है, इस धारणा से धायमाता को बुलाकर उसे तत्काल के जन्मे हुए अंगप्रत्यंग होन केवल श्वास लेने वाले मांसपिंड मांस के लोथड़े को बाहिर लेजाकर फैंक देने को कहना भी मृगादेवी को कोई निंदास्पद प्रतीत नहीं हुआ, इसी लिये उसने धायमाता को ऐसा ( पूर्वोक्त ) आदेश दिया । For Private And Personal धामाता का मृगादेवी की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए विजय नरेश के पास जाकर सारी वस्तु स्थिति को उसके सामने रखना और उसकी अनुमति मांगना भी उसकी बुद्धिमत्ता और दीर्घदर्शिता का ही सूचक है । इसी लिये उसने बड़ी गंभीरता से सोचना आरम्भ किया कि मृगादेवी ने तत्काल के जन्मे हुए जिस बच्चे को बाहिर फेंकने का आदेश दिया है, उसके स्वरूप को देख कर तो उसका बाहिर फैंक देना ही उचित है, तक इस में प्रवृत्त होना मेरे लिये योग्य परन्तु जब तक महाराज की इसमें अनुमति न हो तब नहीं है । क्योंकि एक राजकुमार को फिर भले ही वह किसी
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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