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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 207 श्री विपाक सूत्र - [ प्रथम अध्याय 1 मूल :तस्स गं दारगस्स गब्भगयस्स चेव अट्ठ णाली अन्तरस्वहायो अट्ठ णालीओ वाहिरप्पवहाओ ट्ठ पूयष्पवहाओ अट्ट सोणियप्पवहाओ, दुवे दुवे करणंतरेसु दुबे २ अच्छितरेसु दुवे २ नक्कंतरेसु दुवे २ धमणि - अंतरेसु भिक्खणं २ पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीओ २ चेव चिट्ठति । तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्म चैत्र अग्गिए नाम वाही पाउन्भूते । जेणं से दार आहारेति से गं खिप्पामेव विद्धमागच्छति, पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणमति । तं पिय से पूयं च सोणियं च आहारेति । पदार्थ - गब्भगयस्स चेव-गर्भ गत ही । तस्स गं-- उस । दारगस्स - बालक की । अट्ठ - आठ । गालीओ -- नाड़ियें जोकि । अब्भतंरख्पवहा श्री -- अन्दर बह रही हैं तथा । अट्ठखालीओ - आठ नाडियें । बाहिरत्पवहाओ - बाहर की ओर बहती हैं उनमें प्रथम की । टु णाली - आठ नाड़ियों से । पूयप्यवहा - पूय - पीब बह रही हैं । अट्ठ-आठ नड़ियों से साख्यिपवहाश्री शोणित- रुधिर ह रहा है। दुगे २ -- दो दो । करणंतरेसु कर्ण छिद्रों में दुगे २- दो दो । अच्छितरे नेत्र छिद्रों में । दुवे २ - दो दो । नक्कंतरेसु - नासिका के छिद्रों में । दुवे २ - -दो दो। धमणी अंतरेसु धमनी नामक नाड़ियों के मध्य में । अभिक्खणं २ -- बार बार । पूयं च- - पूय और सोणियं च शोणित-रक्त का परिस्वमाणी २ -- परिस्राव करती हुई । चेव - समुच्चयार्थक है। चिति---स्थित हैं अर्थात् पूय और शोणित को बहा रहीं हैं तथा । गब्भगयम्स चेव - गर्भगत ही । तस्स णं दारगस्स - उस बालक के शरीर में । अग्गर णामं - अग्निक - भस्मक नाम की । वाही-व्याधि-- रोग विशेष का। पाउब्भूते- प्रादुर्भाव हो गया। जेणं - जिसके कारण जो कुछ । से - वह । दारए बालक । आहारेति – आहार करता है । सेणं - वह । खियामेव - शीघ्र ही । विद्ध समागच्छति - नाश को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जठराग्नि द्वारा पचादिया जाता है तथा वह। पूयत्ताए य- - पूयरूप में और । सांणियत्ताए य- शोणितरूप में । परिण मति - परिणमन हो जाता बदल जाता है तदनन्तर से वह बालक तं पिय-उस । पूयं च पूय का तथा । सोणियं च शोणित-लहू का । आहारेति- आहार- भक्षण करता है । -- Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूलार्थ गर्भगत उस बालक के शरीर में में से पूय और रुधिर बहता था । इस प्रकार में से पीव और रुधिर बहा करता था । इन १६ कर्ण छिद्रों में इसी प्रकार दो दो नेत्र धमनियों से बार २ पूय तथा रक्त का स्राव किया बह रहा था । और गर्भ में हो उस बोलक के उत्पन्न हो गई थी जिस के कारण वह अन्दर तथा बाहर बहने वाली आठ नाडियों शरीर के भीतर और बाहर की १६ नाडियों नाडियों में से दो दो नाड़िये कर्णं विवरोंविवरों में, दो दो नासिका विवरों और दो २ करती थीं अथात् इन से पूय और रक्त शरीर में अग्निक - भस्मक नाम की व्याधि बालक जो कुछ ग्याता वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता था, (१) छाया -- तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाष्ट नाड्योऽभ्यन्तर प्रवहाः, अष्ट नाड्यो बहिष्प्रवहाः, अष्ट पूयप्रवहाः, अष्ट शोणितप्रवहाः, द्वे द्वे कर्णान्तरयोः, द्वे २ अयन्तरयोः २ नासान्तरयोः, द्वे धमन्यन्तरयोः । अभीक्ष्णं २ पूयं च शोणितं च परिस्रवन्त्यः परिस्रवन्त्यश्चैव तिष्ठन्ति । तस्य दारकस्य गर्भगतस्यैवाग्मिको नाम व्याधिः प्रादुर्भूतः । यत् दारक आहरति तत् चिप्रमेव विध्वंसमागच्छति पूयतया शोणिततया च परिणमति । तदपि च स पूयं च शोणितं चाहरति । (२) हृदयकोष्ठ के भीतर की नाडि का नाम धमनी है । For Private And Personal -
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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