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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याया हिन्दी भाषा टीका सहित । [८१ अर्थात पच जाता था तथा तत्काल ही वह पूय-पोब और शोणित-रक्त के रूप में परिणत हो जाता था । तदनन्तर वह बालक. उस पूय और शाणित को भी खा' जाता था। (१) गर्भगत जीव माता के खाए हुए आहार से पुष्टि को प्राप्त होता है, यह कथन सर्वसम्मत है परन्तु मृगापुत्र के जीव की दुष्कर्मवशात् इस से कुछ विलक्षण ही स्थिति है । मृगापुत्र का जीव माता द्वारा किये गए आहार को जहां रस के रूप में ग्रहण करता है वहां वह जठराग्नि के द्वारा रस के पचाए जाने और उस के पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाने पर उस पूय और रुधिर को भी दोबारा आहार के रूप में ग्रहण करता है। जो कि स्थूल-दृष्ट्या प्रकृति-विरुद्ध ठहरता है। गर्भ के बाहिर आने पर मृगापुत्र के द्वारा गृहीत आहार का पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाना, उस परिणत पदार्थ का वमन हो जाना, तदनन्तर उस वान्त पदार्थ का मृगापुत्र के द्वारा ग्रहण कर लेना तो असंगत नहीं ठहरता। क्योंकि ये सब व्यवहार-सिद्ध है हो । परन्तु गर्भस्थ जीव का दोबारा आहार ग्रहण करना कैसे संगत ठहरता है ? यह अवश्य विचारणीय है । विद्वानों के साथ ऊहापोह करने से मैं जो समाधान कर पाया हूँ, वह पाठकों के सामने रख देता हूँ। उस में कहां तक औचित्य है ? यह वे स्वयं विचार करें। ___ सर्व-प्रथम तो यह समझ लेना चाहिये कि कर्मों की विलक्षण स्थिति को सम्मुख रखते हुए मृगापुत्र के जीव का जो चित्रण शास्त्रकारों ने किया है वह कोई आश्चयजनक नहीं है, क्योंकि कर्मराज के न्यायालय में दुष्कर सुकर है, और सुकर दुष्कर । तभी तो कहा है-कर्मणां गहना गतिः। इस के अतिरिक्त गर्भगत जीव के आहार-ग्रहण में और हमारे आहार भक्षण में विशिष्ट अन्तर है। हम जिस प्रकार अाहार ग्रहण करने में मुख, जिह्वा आदि की क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं उस प्रकार की भक्षण-क्रिया गर्भगत जीव में नहीं होती। मृगापुत्र के जीवन परिचय में “–गर्भस्थ मृगापत्र के शरीर की आठ अन्दर की नाड़िये और आठ बाहिर की नाड़ियें पूय अोर रुधिर का परिसाव कर रही थीं , यह ऊपर कह ही दिया गया है। यहां प्रश्न होता है कि मृगापुत्र के शरीर की नाड़िये जो प्य और रुधिर का परिसाव कर रहीं थीं, वह कहां जाता था? मृगापत्रीय शरीर के ऊपर तो जराय का बन्धन पड़ा हुआ है जो कि प्राकृतिक है, पूय और रुधिर को बाहिर जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं, तब वह क्या जराय में एकत्रित होता रहता था या उस के निर्गमन का कोई और साधन था ? ___ इसी प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने -तं पि य से पूयं च सोणियं च आहारेति-इन शब्दों द्वारा किया है। अर्थात् वह मृगापुत्र का जीव उस पूय और रुधिर को आहार के रूप में ग्राण कर लेता था । ___ सूत्रकार का यह पूर्वोक्त कथन बड़ा गंभीर एवं युक्ति-पूर्ण है । क्योंकि-मृगापुत्र जो आहार ग्रहण करता है; वह तो पूय और साधर के रूप में परिणत हो जाता है; और उसके शरीर की पाठ अन्दर की और आठ बाहिर की नाडियें उस पूय और रुधिर का स्रवण कर रहीं हैं। ऐसी स्थिति में उस के शरीर का निर्माण किस तत्त्व से हो सकेगा ? यह प्रश्न उपस्थित होता है, जिस का उत्तर सूत्रकार ने यह दिया है कि नाडियों से परिस्रवित पूय और रुधिर को वह (मृगापुत्र का जीव) ग्रहण कर लेता था, जो उस के शरीर-निर्माण का कारण बनता था। रहस्यं तु केवलि-गम्यम् ।। मृगापुत्र के जीव का यह कितना निकृष्ट एवं घृणास्पद वृत्तान्त है, यह कहते नहीं बनता । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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