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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । नहीं हो सकी तब शरीर से श्रान्त, मन से दु ग्वित तथा शर और नन से विन्न होती हुई इच्छो न रहते हुए विवशता के कारण अत्यन्त दुःग्व के साथ उस गर्भ को धारण करने लगी। टीका-पतिपरायणा साध्वी स्त्री के लिये संसार में अपने पति से बढ़ कर कोई भी वस्तु इष्ट अथवा प्रिय नहीं होती । पतिदेव की प्रसन्नता के सन्मुख वह हर प्रकार के सांसारिक प्रलोभन को तुच्छ समझ कर ठुकर देती है। उस की दृष्टि में पतिप्रेम का सम्पादन करना ही उसके जीवन का एक मात्र ध्येय होता है, अतः पतिप्रेम से शून्य जीवन को वह एक प्रकार का अनावश्यक बोझ समझती है जिस को उठाये रखना उस के लिये असह्य हो जाता है । यही दशा पतिव्रता मृगादेवी की हुई जब कि उसने अपने आपको प्रतिप्रेम से वंचित पाया। कुछ समय पहले उसके पतिदेव का उस पर अनन्य अनुराग था। वे उसे गृहलक्षमी समझकर उसका हार्दिक स्वागत किया करते और उसकी प्रादश सुन्दरता पर सदा मुग्ध रहते । इसके अतिरिक्त हर एक सांसारिक और धार्मिक काम काज में उसकी सम्मति लेते तथा उसकी सम्मति के अनुसार हा प्रस्तावित काम काज को सनिश्चित रूप प्राप्त होता । परन्तु अाज वे उस से सर्वथा परांमुख हो रहे हैं। उसका नाम तक भी लेने को तैयार नहीं । आज वह प्रेमालाप मधुर-सभाषण एवं सांसारिक और धार्मिक विषयों की विनोदमयी चर्चा उसके लिये स्वप्न सी हो गई । ऐसे क्यों ? क्या सचमुच मुझसे ऐसी ही कोई भारी अवज्ञा हुई है, जिस के फलस्वरूप मेरे स्वामी विजय नरेश ने एक प्रकार से मुझे त्याग ही दिया है। वह तो मुझे दिखाई नहीं देती। फिर इसका कारण क्या ? इस विचार परम्परा में उलझी हुई मृगादेवी को ध्यान आया कि जब से मेरे गर्भ में यह कोई जीव अाया है तब से ही महाराज मुझ से कष्ट हुए हैं अतः उन के रोष अथ च परांमुखता का यही एक कारण हो सकता है । तब यदि इस गर्भ का ही समूलघात कर दिया जाय तो सम्भव है नहीं नहीं सुनिश्चित है । कि महाराज का फिर मेरे ऊपर पूर्ववत् ही स्नेहानुराग हो जयगा और उनके चरणों की उपासना का मुझे सुअवसर प्राप्त होगा, यह था मध्यरात्री के समय कौटुम्बिक चिन्ता में निमग्न हई मृगादेवी का चिन्ता मूलक अध्यवसाय या संकल्प, जिस से प्ररित हुई उस ने गर्भपात के हेतुभूत उपायों को व्यवहार में लाने का निश्चय किया और तदनुसार गर्भ को गिराने वाली औषधियों का यथाविधि प्रयोग भी किया, परन्तु इस में वह सफल नहीं हो पाई। उस के इस प्रकार विफल होने में विपाकोन्मख अशुभकर्म के सिवा और कोई भी मौलिक कारण दिखाई नहीं देता । अवश्यंभावी भाव का प्रतिकार कठिन ही नहीं किन्तु अशक्य अथ च अपरिहार्य होता है। यही कारण है कि सर्वथा अनिच्छा होने पर भी उसे-मृगादेवी को गर्भधारण करने में विवश होना पड़ा। "किमंग पुण" यह अव्यय- समुदाय अर्द्धमागधी-कोष के मतानुसार "- क्या कहना ? उस में तो कहना ही क्या ? अथवा सामान्य बात तो यह है और विशेष बात तो क्या करना--" इन अर्था में प्रयुक्त होता है। शातना गर्भ को खण्ड खण्ड करके गिरादेने वाली क्रिया विशेष का नाम [शातना गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः] अथवा शातना गर्भ को खण्ड खण्ड करके गिरादेने वाली औषधादि का नाम है । पातना-जिन क्रियायों या उपायों से खण्डरूप में ही गर्भ का पात किया जा सके, वे पातन के नाम से प्रसिद्ध हैं। [पातना रुपाखरखण्ड एव गर्भः पतति गालना-जिन प्रयोगों से गर्भ द्रवीभूत होकर नष्ट हो जाय उन्हें गालना कहते हैं-(यैर्गों द्रवीभूय तरति) तथा गर्भ की मृत्यु के कारण भूत उपाय विशेष की मारण संज्ञा अब सूत्रकार मृगापुत्र की गर्भगत अवस्था का वर्णन करते हैं For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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