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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२] श्री विपाक सूत्र [ प्रथम अध्याय वैद्यक ग्रन्थों में अजीर्ण रोग की उत्पत्ति के कारणों और लक्षणों का इस प्रकार निर्देश किया हैं - अत्यम्बुपानाद्विषमा रानाच्च, संधारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च । कालेऽपि सात्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य ।। ईर्षाभयक्रोधपरिप्लुतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन ।। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक्परिपाकमेति ॥ माधवनिदान में अजीर्णाधिकार | अर्थात् - अधिक जल पीने से, भोजन समय के उलंघन से, मल मूत्रादि के वेग को रोकने से, दिन में सोने और रात्रि में जागने से, समय पर किया गया हित मित श्रीर लघ-हलका भोजन भी मनुष्य को नहीं पचता । तात्पर्य यह है कि इन कारणों से अजीर्ण रोग उत्पन्न होता है। इस के अतिरिक्त ईर्षा, भय, क्रोध और लोभ से युक्त तथा शोक और दोनता एवं द्वेष पोड़ित मनुष्य का भी खाया हुआ अन्न पाक को प्राप्त नहीं होता अर्थात् नहीं पचता। ये अजीर्ण रोग के अन्तरंग कारण हैं। और इस का लक्षण निम्नोक्त है - ग्लानिगौरवमाटोपो, भ्रमो मारुत-मूढता । निबन्धोऽतिप्रवृत्तिा , सामान्याजीर्ण-लक्षणम् ॥ (बंगसेने) अर्थात्- ग्लानि, भारीपन, पेट में अफारा और गुड़गुड़ाहट, भ्रम तथा अपान वायु का अवरोध, दस्त का न आना अथवा अधिक पाना यह सामन्य अजीर्ण के लक्षण हैं । (९) दूष्टिशल- इस रोग का निदान ग्रन्थों में इस नाम से तो निर्देश किया हुआ मिलता नहीं, किन्तु आम युक्त नेत्ररोग के लक्षण वर्णन में इसका उल्लेख देखने में आता है, जैसे कि - उदीर्णवेदनं नेत्रं, रागोद्रकसमन्वितम् । घर्षनिस्तोदशूलाश्रु युक्तमामान्वितं विदुः ।। अर्थात् जिस रोग में नेत्रों में उत्कट वेदना-पीड़ा हो. लाली अधिक हो, करकराहट हो-रेत गिरने से होने वाली वेदना के समान वेदना हो. सुई चभाने सरीखी पीड़ा हो, तथा शूल हो और पानी बहे, ये सब लक्षण आमयुक्त नेत्ररोग के जानने । (१०) मूर्ध-शूल-- मस्तक शूल की गणना शिरोरोग में है । यह-शिरोरोग ग्यारह प्रकार का होता है, जैसे कि शिरोरोगास्तु जायन्ते वातपित्तकफैस्त्रिभिः । सन्निपातेन रक्तेन क्षयेण कृमिभिस्तथा ॥१॥ सूर्यावर्तानन्त-वात-शंखकोऽविभेदकैः । एकादशविधस्यास्प लक्षणं संप्रवक्ष्यते ॥२॥ (वंगसेने) अर्थात् -- (१) वात (२) पित्त (३) कफ (४) सन्निपात (५) रक्त (६) क्षय और (७) कृमि, इन कारणों से उत्पन्न होने वाले सात तथा (८) सूर्यावर्त (९) अनन्त-बात (१०) अर्द्धावभेदक और ११) शंखक, इन चार के साथ शिरोरोग ग्यारह प्रकार का है, इन सब के पृथक पृथक लक्षण निदान ग्रन्थों से जान लेने चाहिये। यहां विस्तार भय से उनका उल्लेख नहीं किया गया । (११)अरोचक-भोजनादि में अरुचि-रुविविशेष का न होना अरोचक का प्रधान लक्षण है। वंगसेन तथा माधव निदान प्रभृति वैद्यक ग्रन्थों में लिखा है कि – वातादि दोष, भय क्रोध और अतिलोभ के कारण तथा मन को दूषित करने वाले आहार, रूप अोर गन्ध के सेवन करने से पांच प्रकार का अरोचक रोग उत्पन्न होता है, जैसे कि - वातादिभिः शोकभयातिलोभक्रोधैर्मनोनारान-रूपगंधैः अरोचकाःस्यु ...... ॥१॥ [बंगसेने] (१२) अतिवेदना--यह कोई स्वतन्त्र रोग नहीं है। किन्तु वात-प्रधान नेत्र रोग में अर्थात् - For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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