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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित [६१ मत है कि भगाकार विदीर्ण होने से इस का नाम भगन्दर, है, अर्थात् भगाकार विदीर्ण होता है इस कारण इस को भगन्दर कहते हैं। वास्तव में ऊपर उल्लेख किये गये भगन्दर के लक्षण के साथ भगन्दर शब्द की निरुक्ति कुछ अधिक मेल खाती है। (७ अर्श - इसका आम प्रचलित नाम बवासीर है । यह ६ प्रकार की होती है - '१) वातज (२) पित्तज (३) कफज (४) त्रिदोषज (५) रक्तज (६) सहज । इस का निदान और लक्षण इस प्रकार कहा है दोषास्त्वङ् मांसमेदांसि, सन्दूष्य विविधाकृतीन् । मांसांकुरानपानादौ, कुर्वन्त्यासि ताजगुः ॥ २ ॥ (माधवनिदाने अर्शाधिकार :) अर्थात्-दुष्ट हुए वातादि दोष, त्वचा, मांस और मेद को दूषित करके गुदा में अनेक प्रकार के श्राकार वाले मांस के अंकुरों (मस्सों) को उत्पन्न करते हैं उन को अर्श-अर्थात् बवासीर कहते हैं । उक्त घडविध अर्श रोग में त्रिदोषज कष्टसाध्य और सहज असाध्य है। (८) अजीर्ण-जीर्ण अर्थात् किये हुए भोजनादि पदार्थों का सम्यक पाक न होना अजीर्ण है। यह रोग जठराग्नि की मन्दता के कारण होता है । वैद्यकग्रन्थों में ---मन्द तीक्ष्ण, विषम और सम इन मेदों से जठराग्नि चार प्रकार की 'बतलाई है। इन में कफ की अधिकता से मन्द, पित्त के आधिक्य से तीक्ष्ण, वायु की विशेषता से विषम और तीनों की समानता से सम अग्नि होती है। इन में सम अग्निवाले मनुष्य को तो किया हुआ यथेष्ट भोजन समय पर अच्छे प्रकार से पच जाता है । और मन्दाग्नि वाले पुरुष को स्वल्प मात्रा में किया हुआ भोजन भी नहीं पचता तथा जो विषमाग्नि वाला होता है उसको कभी पच भी जाता है और कभी नहीं भी पचता । तथा जो तीक्ष्ण अग्नि वाला होता है उसको तो भोजन पर भोजन. अथवा अत्यन्त भोजन भी किया हा पच जाता है । इन में जो मन्दाग्नि या विषम अग्नि वाला पुरुष होता है उसी पर अजीर्ण रोग का अाक्रमण होता है । अजीर्ण रोगके प्रधानतया चार भेद बतलाये हैं जैसे कि -(१) श्राम अजीण (२) विदग्ध अजीर्ण (३) विष्टब्ध अजीर्ण और (४) रसशेष अजीर्ण । इन की व्याख्या निम्नोक्त है - (१) श्राम --अजीर्ण में कफ की प्रधानता होती है, इस में खाया हुआ भोजन पचता नहीं है । (२) विदग्ध - अजीर्ण में पित्त का प्राधान्य होता है, इस में खाया हुआ भोजन जल जाता है । (३) विष्टब्ध- अजीर्ण में वायु की अधिकता होती है, इस में खाया हुआ अन्न बंध सा जाता है । (४) रसशेष - अजीर्ण में खाया हुअा अन्न भली भांति नहीं पचता । किया है-- भगन्दरम् - भगं गृह्यमुष्कमध्यस्थानं दारयतीति.. .. .. स्वनामाख्याते रोगभेदे- तब भगशब्द से प्राचार्य हेमचन्द्र जी को भी सम्भवतः यही अभिमत होगा ऐसा हमारा विचार है । (१) मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विषमः, समश्चेति चतुर्विधः । कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याजाठरोऽनल: ॥१॥ [वंगसेने अजीर्णाधिकारः] (२) श्राम विदग्धं विष्टब्धं, कफपित्तानिल स्त्रिभिः । अजीर्ण केचिदिच्छन्ति, चतुर्थ रस-शेषतः ॥ २७ ।। (बंगसेने) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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