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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्याय ] हिन्दी भाषी टीका सहित । ............... शासनार्थ राज्य की ओर से नियुक्त किया हुआ था, एकादी था। वह पूरा धर्म विरोधी धार्मिक क्रियानुष्ठानों का प्रतिद्वन्द्वी और साधुपुरुषों का द्वेषी अथवा पूर्ण असन्तोषी-कि ती से सन्तुष्ट न किया जाने वाला था। ___यहां पर "अहम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे" पाठगत “जाव-यावत्" पद से--- 'अधम्माणुए, अधमिटे, अधम्मकलाई, अधम्मपलोई, अधम्मपलज्जणे, अधम्मसमुदाचारे, अधम्मेणं चेव विति कप्पेमाणे दुस्सीले दुव्यर" [छाया-अधर्मानुगः, अधर्मिष्टः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, अधर्मप्ररजनः, अधर्मसमुदाचारः अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुःशील दुव्रतः इन पदों का भी ग्रहण करलेना। ये सब पद उसकी - एकादि की अधार्मिकता बोधनार्थ ही प्रयुक्त किये गये है । दूसरे शब्दों में कहें तो ये सब पदं उसकी अधार्मिकता के व्याख्यारूप ही हैं, जैसे कि --- (.) अधर्मानुग-अधर्म का अनुसरण करने वाला, अर्थात् जिस में श्रुत और चारित्ररूप धर्म का सद्भाव न हो ऐसे आचार विचार का अनुयायी व्यक्ति । (२) अधर्मिष्ट-जिस को अधर्म ही इष्ट हो- प्रिय हो, अथवा जो विशेष रूप से अधर्म का अनुसरण करने वाला हो वह अधर्मिष्ट कहलाता है। (३) अधर्माख्यायी-अधर्म का कथन, वर्णन, प्रचार करने वाला। (४) अधर्मप्रलोकी --सर्वत्र अधर्म का प्रलोकन-अवलोकन करने वाला। (५) अधर्मप्ररजन-अधर्म में अत्यधिक अनुराग रखने वाला । (६) अधर्मसमुदाचार --अधर्म ही जिसका प्राचार हो, इसीलिये वह अधर्म से वृत्ति-पाजीविका को चलाने वाला, दुष्टस्वभावी और व्रतादि से शून्य-रहित होता है । एका दि नामक राष्ट्रकूट विजयवर्द्धमान खेट के अन्तर्गत पांचसौ ग्रामों का शासन अथच संरक्षण करता हुअा जीवन बिता रहा था । मण्डल (प्रान्त विशेष) से आजीविका करने वाले राज्यधिकारी को राष्ट्रकूट कहा जाता है - "राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिक :-वृत्तिकारः । ___"आहेवच्चं जाव पालेमाणे” इस पाठ के "जाव-यावत्' पद से . "पोरेवच्चं, सामिसं, भट्टितं महत्तर-गतं, अणाईसरसेणावच्चं, कारेमाणे" [पुरोवर्तित्वम् , स्वामित्वम् , भतृत्वम् , महत्तरकत्वम् , प्राज्ञ श्वरसेनापत्यं कारयन् ] इन पदों का भी संग्रह करना चाहिये । सूत्रकार ने प्रथम राष्ट्रकूट को अधर्मी-धर्म विरोधी कहा है, अब सूत्रकार उसके अधर्ममूलक गर्हित कृत्यों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि एकादि राष्ट्रकूट पांचसौ ग्रामों में निवास करने वाली प्रजा को निम्नलिखित कारणों द्वारा प्राचार भ्रष्ट, तिरस्कृत, ताड़ित एव पीड़ित कर रहा था जैसे कि -क्षेत्र आदि में उत्पन्न होने वाले पदार्थों के कछ भाग को कर महसूल के रूप में ग्रहण करना (२) करों-टैक्सों में अन्धाधुन्ध वृद्धि करके सम्पत्ति को लूट लेना, (३) किसान प्रादि श्रमजीवो व को दिये गये अन्नादि के बदले दुगना तिगुना कर ग्रहण करना (४) अपराधी के अपराध को दबा देने के निमित्त उत्कोच-रिश्वत लेना (५) अनाथ प्रजा की उचित पुकार अपने स्वार्थ के लिये दवा देना, अर्थात् यदि प्रजा अपने हित के लिये कोई न्यायोचित आवाज़ उठाये तो उस पर राज्य-विद्रोह के बहाने दमन का चक चलाना (६) ऋणो व्यक्ति से अधिक मात्रा में व्याज लेना (७) निर्दोष व्यक्तियों पर हत्यादि का अपराध लगाकर उन्हें दण्डित करना (८) अपने (१) पुरोवर्तित्व-अग्रेसरत्व (मुख्यत्व), स्वामित्व-नायकत्व भतृत्व-पोषणकतृत्व, महत्तरकत्वउत्तमत्व, प्राज्ञोश्वर सैनापत्य-याज्ञा की प्रधानता वाले स्वामी की सेना का नेतृत्व करता हुआ। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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