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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४] श्री विपाक सूत्र अध्याय] पांच सौ ग्रामों को । बहूहिं-बहुत से । करेहि-करों से ' भरेहि य-उन की प्रचुरता से । विद्धीहि यद्विगुण आदि ग्रहण करने से । उक्कोडाहि य-रिश्वतों मे । पराभवेहि य ---दमन करने से । दिज्जेहि यअधिक व्याज से। भिज्जेहि य-हननादि का अपराध लगा देने से । कुन्तेहि य --धन ग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि के प्रबन्धक बना देने से । लंछपोसेहि य--चौर आदि व्यक्तियों के पोषण से । बालीवणेहि य-ग्रामादि को जलाने से। पंथकोहि य--पथिकों के हनन (मार-पीट) से । ओवीलेमाणे २-व्यथित-- पीड़ित करता हु। विहम्मेमाणे २-अपने धर्म से विमुख करता हुआ । तज्जेमाणे २तिरस्कृत करता हुआ । तालेमाणे २--कशादि से ताड़ित करता हुआ। निद्धणे करमाणे २-प्रजा को निधन -धन रहित करता हुआ । विरहति-विहरण कर रहा था- अर्थात् प्रजा पर अधिकार जमा रहा था । मूलार्थ-हे गौतम ! इस प्रकार आमंत्रण करते हुए श्रमण भावान महावीर स्वामी ने गौतम के प्रति कहा-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवणे में शतद्वार नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। वहां के लोग बड़ो निर्भयता से जीवन बिता रहे थे। आनन्द का वहां सर्वतोमुखी प्रसार था । उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर के 'अदूरसामन्त-कुछ दूरी पर दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् अग्नि कोण में विजयवर्तमान नाम का एक खेट-नदी और पर्वतों से घिरा हुआ, अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित नगर था, जो कि ऋद्धि समृद्धि आदि से परिपूर्ण था । उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था, उस में एकादि नाम का एक राष्ट्रकूट-राजनियुक्त प्रतिनिधि प्रान्ताधिपति था, जो कि महा अधर्मी और दुष्प्रत्यानन्दी-परम असन्तोषी, साधजनविद्वेषी अथवा दुष्कृत करने में ही सदा आनन्द मानने वाला था। वह एकादि विजय वद्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। __ तदनन्तर वह एकादि नाम का राजप्रतिनिधि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को, करोंमहसूलों से, करसमूहों से, किसान आदि को दिये गये धान्य आदि के द्विगुण आदि के ग्रहण करने से, दमन करने से, अधिक व्याज से, हत्या आदि के अपराध लगा देने से, धन के निमित्त किसी को स्थानादि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि के पोषण से, ग्राम आदि के दाह कराने-जलाने से, और पथिकों का घात करने से लोगों को स्वाचार से भ्रष्ट करता हुआ तथा जनता को दुःखित, तिरस्कृत (कशादि से) ताड़ित और निर्धन-धन-रहित करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। टोका ---मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी किये गये गौतम स्वामी के प्रश्नों का सांगोपांग उत्तर देने के निमित्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमया कि गौतम ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में शतद्वार नामक एक नगर था जोकि नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णरूपेण समृद्ध था। उस नगर में महाराज धनपति राज्य किया करते थे। उस नगर के निकट विजय वर्द्धमान नाम का एक खेट था जो कि वैभवपूर्ण और सुरक्षित था उसका विस्तार पांच सौ ग्रामों का था, तात्पर्य यह है कि जस तरह आज भी के अन्तर्गत अनेकों शहर कस्बे और ग्राम होते हैं। उसी भांति विजय वर्द्धमान खेट में भी पांच सौ ग्राम थे. अर्थात् वह पांच सौ ग्रामों का एक प्रान्त था । खेट के प्रधान अधिकारी का नाम-जिसे वहां के (१) जो न तो अधिक दूर और न अधिक समीप हो उसे अदूरसामन्त कहा जाता है। (२) जिस के चारों ओर धूलि-मिट्टी का कोट बना हुआ हो, ऐसे नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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