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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६ 7 श्री विपाक सूत्र -- [अध्याय ] स्वार्थ को सिद्ध करने के लिये किसी अयोग्य व्यक्ति को किसी स्थान का प्रबन्धक बना देना, तात्पर्य यह है कि किसी योग्य पुरुष को धन लेकर किसी प्रान्त का प्रबन्धक नियुक्त कर देना (९) चोरों का पोषण करना, अर्थात् उन से चोरी करा कर उस में से हिस्सा लेना, अथवा बदमाशों के द्वारा शान्ति स्वयं भंग कराकर फिर सख्ती से नियन्त्रण करना (१०) व्याकुल जनता को ठगने के लिये ग्राम आदि को जलादेना ( ११ ) मार्ग में चलने वालों को लूटना, अर्थात् पथिकों-मुसाफिरों को मरवा कर उन के धन का अपहरण करना । दुराचारी मनुष्य अपने अचिरस्थायी सुख वा स्वार्थ के लिये गर्हित से गर्हित कार्य करने में भी संकोच नहीं करता, यही कारण है कि वह दुःख - मिश्रित मुख के लिये अनेक जन्मों में भोगे जाने वाले दुःखों का संग्रह कर लेता है। एकादि नामक राष्ट्रकूट उन्हीं पतित व्यक्तियों में से एक था, वह अपने स्वार्थ की वर्तमान कालीन सुखसामग्री को सन्मुख रखता हुआ अनाथ प्रजा को पोड़ित कर रहा था । और अपने प्रभुत्व के मद में अन्धा होता हुआ हज़ारों जन्मों में भोगे जाने वाले दुखों का सामान पैदा कर रहा था । अतः बुद्धिमान् मनुष्य का कर्तव्य है कि वह केवल अपनी वर्तमान परिस्थिति का ही ध्यान न करता हुआ अपनी भूत और भाव अवस्था का भी ध्यान रक्खें। जिस से कि जोवन क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास को भी कुछ अवकाश मिल सके । सूत्रकार एकादि राष्ट्रकूट की पतित मानसिक वृत्तियों द्वारा उपार्जित कर्मों के फल स्वरूप भयंकर रोगों का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं मूल - तते गं से एक्काई रहकूड़े विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राइसर० जाव सत्थवाहाणं एसि च बहूणं गामेन्लग पुरिसाणं बहुसु कज्जेसु कारणेसु य मंतेस गुज्भेस निच्छएस य ववहारेसु सुखमाणे भणति न सुरोमि, सुणमाणे भगति सुमि, एवं परमाणे भासमाणे जेरहमाणे जागमाणे । तते गं से एक्काई रटुकूड़े एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे, एयसमायारे सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस समज्जिरमाणे विहरति । तते गं तस्स ऐगाइयस्स (१) छाया - ततः स एकादी राष्ट्रकूट विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य बहूनां राजेश्वर ० यावत् सार्थ वाहानामन्येषां च बहूनां ग्रामेयकपुरुषाणां बहुषु कार्येषु कारणेषुच मंत्रेषु गुह्येषु निश्चयेषु व्यवहारेषु च शृण्वन् भगति न शृणोमि शृण्वन् भरगति शृणोमि एवं पश्यन् भाषमाणो गृहन् जानन् । ततः स एकादी राष्ट्रकूट: एतत्कर्मा एतत्प्रधानः एतद्विद्यः एतत्समाचरः सुबहु पापं कर्म कलिकलुषं समर्जयन् वि हरति । ततः तस्यैकादे राष्ट्रकटस्य अन्यदा कदाचित् शरीरे युगपदेव षोड़श रोगातंकाः प्रादुर्भुताः तद्यथा - श्वासः १ कासः २ ज्वरः ३ दाहः ४ कुक्षिशूलम् ५ भगन्दरः ६ अशः ७ अजीर्णम् ८ दृष्टिमूर्धशूले ९ - १० अरोचकः ११ अक्षिवेदना १२ कर्णवेदना १३ कंडू १४ दकोदरः १५ कुष्ठः १६ । (१) " कज्जेसु" त्ति कार्येषु प्रयोजनेषु निष्पन्नेषु, 'कारणेसुत्ति सिषाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु तत्र मन्त्राः पर्यालोचनानि, गुह्यानि-रहस्यानि, निश्चयाः वस्तुनिर्णयाः, व्यवहाराः विवादास्तेषु विषयध्विति वृत्तिकारः । (२) " एयकम्मे" त्ति एतद् व्यापारः, एतदेव वा काम्यं कमनीयं यस्य स तथा " एयपहाणे" ति एतत्प्रधानः एतन्निष्ठ इत्यर्थः । एयविज्जे" त्ति एव विद्या विज्ञानं यस्य स तथा । "पयसमायारे" त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थ: । ( वृत्तिकारः ) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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