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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ॥ पारिभाषिकः ॥ ३३ होना चाहिये जैसे ( बहोर्लोपोभूच बहोः ) यहां ( बहु ) शब्द पंचमीनिर्दिष्ट और ( इष्ठन्, इमनिच्, ईयसुन् ) सतमोनिर्दिष्ट हैं यह बहु से परे इष्ठन् आदि को वा इष्ठन् आदि के परे बहु शब्द को कार्य होवे इस सन्देह की निवृति इस परिभाषा से हुई कि पंचमीनिर्दिष्ट को कार्य होना चाहिये अर्थात् बहु से परे इष्ठन् श्रादि को कार्य होवे सोपरको विहितकार्य अर्थात् ईयसुन् के आदि का लोप हो जाता हे भूयान्, भूमा तथा ( ङमो हुस्वादचिङयुग् नित्यम् ) यहां ङम् से परे अच् को वा अच् परै हो तो ङम् को कार्य हो यह सन्देह है । सो ह्रस्व से परे जो उम् से परे अच् को कार्य होता है ( तिङतिङ : ) कुर्वन्द्रास्ते । इत्यादि बहुत सन्देह निवृत्त हो जाते हैं ॥ ६१ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस व्याकरणशास्त्र में ( स्वं रूपं शब्दस्या० ) इस परिभाषासूत्र के अनुकूल ( पवस्कुभो, पयस्पात्री) इत्यादि प्रयोगों में विसर्जनीय को सकारादेश न होना चाहिये क्योंकि कुम्भ और पात्र आदि शब्दों के परे कहा है उन के स्वरूप ग्रहण होने से स्त्रीलिङ्ग में नहीं हो सकता। इसलिये यह परिभाषा है | ६२ - प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणं भवति ॥ श्र० ४।१।१ ॥ प्रातिपदिक के परे वा प्रातिपदिक को जहां कार्य कहा हो वहां पठित लिङ्ग से विशेषलिङ्ग का भी ग्रहण होना चाहिये इस से पयस्कुम्भी आदि प्रयोग भी सिद्द हो जाते हैं जैसे सर्वनाम को सुट कहा है सो ( येषाम्, तेषाम् ) यहां तो होता ही है ( यासां तासां ) यहां भी हो जावे असे ( कष्टं श्रितः कष्टश्रित: ) यहां समास होता है वैसे ( कटं श्रिता कष्टविता ) यहां भी हो जावे जैसे ( हस्तिनां समूहो हास्तिकम् ) यहां ठक् होता है वैसे ( हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् ) यहां भी हो जावे जैसे ( ग्रामवासी ) यहां सप्तमी का अलुक् होता है वैसे ( ग्रामे वासिनी ) यहां भी हो नावे इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ६२ ॥ जब प्रातिपदिक के ग्रहण में लिङ्गविशिष्ट का भी ग्रहण होता है तो जैसे ( यूनः पश्य ) यहां युवन् शब्द को सम्प्रसारण होता है वैसे. ( युवतीः पश्य ) यहां स्त्रीलिङ्ग में भी होना चाहिये इत्यादि सन्देहों को निवृत्ति के लिये यह परि० ॥ ६३ - विभक्तौ लिङ्गविशिष्टग्रहणं न ॥ श्र० ७ । १ । १ ॥ विभक्ति के आश्रय कार्य करने में पठितलिंग से अन्य लिंग का ग्रहण नहीं होता । इस से भसंज्ञाश्रय सम्प्रसारण युवति शब्द को नहीं होता तथा जैसे ५ For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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