SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ - पारिभाषिकः । (गोमान्, यवमान्) यहां नुम् औरदीर्घ होते हैं वैसे (गोमती, यवमती यहां होवे सो सर्वनामस्थ विभक्तयाश्रित कार्य होने से नहीं होताजैसे (सखा, सखायौ) यहाँ सखि शब्द को आकारादेश होता है वैसे सखो,सख्यो,सख्यः) यहां स्त्रीलिङ्ग में विभक्तयात्रित आकार नहीं होता इत्यादि इस परिभाषा के भी बहुत प्रयोजन । ६३ । (तस्यापत्यम्) इस सूत्र में (तस्य) यह पुल्लिङ्गः षष्ठी का एक वचन और अपत्य शब्द नपुंसकलिंग प्रथमैकवचननिर्देश किया है तो (कन्याया अपत्यं,कानीनः)यहाँ स्त्रीलिंग शब्दसे कानोन शब्द नहीं सिद्ध होना चाहिये और (इयोर्मात्रोरपत्यं वैमा. तुरः ) यहां द्विवचन से प्रत्ययोत्पत्ति भी नहीं होनी चाहिये इसलिये यह परिभाषा है। ६४-सूत्रे लिङ्गवचनमतन्त्रम् ॥ ०४।१। ९२ ॥ जो सूत्र में लिंग और बचन पढ़े है वे कार्य करने में प्रधान नहीं होते अर्थात् | जहां स्त्रीलिंग, पुल्लिंग वा नपुंसकलिंग से तथा एकवचन, दिवचन बहुवचन से निर्देश किये जायें वहां उसो पठितलिंग वा वचन से कार्य लिया जाय यह नि यम नहीं समझना चाहिये किन्तु एक किसी लिग वा वचनसे शब्द पढ़ा हो तो । सभी लिङ्ग वचने से कार्य हो सकते हैं इस से (कानीनः, द्वैमातुरः ) इत्यादि शब्द सिद्ध हो जाते हैं । इत्यादि अनेक प्रयोजन इस परिभाषा से सिद्ध होते हैं।६४॥ ____ अब अच्व्यन्त भशादि प्रातिपदिकों से जो भू धातु के अर्थ में ( क्यङ्) प्रत्यय होता है वह (क दिवा भृशा भवन्ति) यहां भी भृश शब्दसे होना चाहिये वृत्यादि सन्देहों को निवृत्ति के लिये यह परिभाषाहै । ६५-जत्रिवयुक्तमन्यसहशाधिकरणे तथाह्यर्थगतिः ॥ ० ३।१ । १२॥ वाक्य में जो नजयुक्त पद है उस के समान जो वाक्य में युक्त और उस नजयुक्त पदार्थ के सदृश धर्मवाला हो उस में कार्यविधान होना चाहिये । ऐसा ही अर्थ लोक में प्रतीत होता है । अर्थात् वाक्य में जिसपदार्थ को जिस क्रिया का निषेध होवे उस पदार्थ के तुल्य धर्म वाले को उसी क्रिया का विधान कर लेना चाहिये। जैसे लोक में किसी ने कहा कि (अब्राह्मणमानय) ब्राह्मण से भिन को लेता तो ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि किसी मनुष्य को ले आता है क्योंकि ब्राह्मण के तुल्य धर्मवाला मनुष्य ही होता है किन्तु यह नहीं होता कि ब्राह्मणसे इतर को मंगवाने में मही वा पत्थर आदि किसी पदार्थ को लेा के अपना अभीष्ट For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy