SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९५ ) पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । वामे प्रदेशे यदि वापसव्ये विहंगयुग्मं समभूमिभागे ॥ क्रीडारसव्याकुलितं नराणामव्याकुलत्वेन करोति सिद्धिम् ॥ ॥ ३१० ॥ वामदक्षिणविभागनिविष्टं तुल्यकालकृतशोभनशब्दम् || पक्षियुग्ममिह तोरणसंज्ञं सर्वकामदमुशंति मुनींद्राः ॥ ३११ ॥ उद्धृता भगवती यदि गंतुर्मातृतोऽपि न भवत्यभयं तत् ॥ दक्षिणा यदि पुनः कुशली तत्सिंहसर्पकरिवैरिवशोऽपि ॥ ३१२ ॥ तारा प्रशस्ता गमनेऽध्वगानां महागुणा सैव यदि प्रशांता ॥ तारैव दीप्ता यदि वा तदानीं लाभक्षतिः स्यान्न तु कापि भीतिः ॥ ३१३ ॥ ॥ टीका ॥ वाम इति ॥ यदि वामे प्रदेशे वापसव्ये समभूमिभागे सति क्रीडारस व्याकुलितं पक्षियुग्मं भवति तदा नराणां सिद्धिमव्याकुलत्वेन करोति ॥ ३१० ॥ वामेति ॥ इहास्मिञ्छास्त्रे तोरणसंज्ञं पक्षियुग्मं सर्वकामदं मुनयः उरांति प्रतिपादयति । कीदृशं वामदक्षिणविभागनिविष्टं पुनः कीदृशं तुल्यकालकृतशोभनशब्दम् || ३११ ॥ उद्धृतेति ॥ यदि गंतुर्भगवती उद्धृता भवति तदा मातृतो:भयं न भवति किमन्येभ्यः । यदि पुनः दक्षिणा भवति तदा सिंहसर्पकरि"वैरिवशप कुशली स्यात् ॥ ३१२ ॥ तारेति ॥ गमनोद्यतानां तारा प्रशस्ता भवति यदि सैव प्रशांता स्यात् तदा महागुणा यदि सा तारैव दीप्ता ॥ भाषा ॥ चाम इति ॥ वामभागमें और जमने भागमें समान पृथ्वी होय तहां पक्षीको युगल होय तो मनुष्य क्रीडारूपी रस करके व्याकुल सिद्ध करै ॥ ३१० ॥ वामेति ॥ वामभागमें और दक्षिणभाग में पक्षीको युगल बैठो होय एक संग दोनों माऊं शब्दकरते होंयँ तो मुनि या शास्त्रमें सर्वकामको देबेवारो तोरण संज्ञा याकी कहैं हैं || २११ ॥ उद्धृतेति ॥ जो गमन करबेबारेके भगवती उद्धृता होय तो माताते भी अभय नहीं होय. और ते तो कहा अभय होय जो फिर दक्षिणा होय तो सिंह, सर्व, हाथी, वैरी इनके वशमें पड जाय तो हूं कुशलही होय बिगाड नहीं होय. ॥ ३१२ ॥ तारेति ॥ गमनमें दक्षिणा शुभ है जो वोही शांता होय तो बहुत गुणदायिक होय और जो वो दक्षिणाही दीप्ता होय तो लाभकी For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy