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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पोदकरिते गतिप्रकरणम्। स्याकांडतारा रहिता फलेन नष्टार्थलाभाय च पृष्ठतारा ॥ या त्वर्धतारा शकुनैकदेवी सा द्विप्रकारापि फलार्धदात्री ।। ॥ १२१ ॥ यावत्प्रकारा फलमत्र तारा या च व्यथां यच्छति मानवानाम् ।। तावत्प्रकारा पुनरत्र वामा भयं तथा तावदुपादधाति ॥ १२२ ॥ जानुप्रदेशे वरवाहनाप्तिस्तथोरुदेशे परिधानलाभः ॥ रम्यासनावाप्तिरथापि कट्यामिष्टान्नभोज्यं जठरप्रदेशे ॥ १२३ ॥ कंठे च कंठाभरणस्य लाभो ललाटदेशेऽपि च पट्टबंधः ॥छत्रस्य लाभः शिरसि प्रयाणे स्यात्तारया वामगता प्रवेशे॥ १२४ ॥ ॥टीका ॥ आभिमतासिद्धयै वक्रा अतिवव भवति दूरा दूरप्रदेशे दूरस्थाने फलदा भवति गुलिकिः कार्यस्य प्रणाशं करोति पुनरूर्द्धतारा युद्धं विधत्ते ॥१२०॥ स्यादिति ॥ फलेन रहिता कांडतारा स्यात् । पृष्ठतारा नष्टार्थलाभाय गतवस्तुनः प्राप्त्यै स्यात् या द्विप्रकारा अर्धतारा शकुनैकदेवी भवति सा फलार्धदात्री स्यात् ॥ १२१ ॥ यावदिति ॥ अत्र यावत्प्रकारा तारा यावत्फलं यथा येन प्रकारेण मानवानां यच्छति ददाति । पुनरत्र तावत्यकारा श्यामा वामा सती तथा तेन प्रकारेण तावद्रयं उपादधाति । कुरुते ॥ १२२ ॥ जान्विति ॥ जानुप्रदेशे सक्थिप्रदेशे चेत्तारा प्रयाति तदा वरवाहनाप्तिर्भवति। तथोरदेशे याति तदा परिधानलाभः स्यात्।अथ कटयां रम्यासनावाप्तिर्भवति तत्रासनं रथतुरंगादीत्यर्थः।कविम्यांगनावाप्तिरथापि कट्यामित्यपि पाठः । जठरप्रदेशे मिष्टानभोज्यं स्यात् ॥ १२३ ॥ कंठेचेति ।। ॥ भाषा॥ युद्ध करावे ॥ १२० ॥ स्याकांडेति ॥ कांडतारा फल करके रहित है और पृष्ठ तास नष्ट हुये अर्थक लाभ करवेवाली और द्विप्रकारा तारा गई वस्तुकी प्राप्तिके अर्थ है और अर्द्धतारा आधे फलकी देवेवारी है ॥ १२१ ॥ यावदिति ॥ यामें जितनी तारा हैं जितन फल जा प्रकारकर मनुष्यनकू देवेहैं फिर वोही तारा वा माता प्रकारकर उतनेही भय कर है ।। १२२ ॥ जान्विति ॥ जो तारा जानुप्रदेशमें प्राप्त होय तो उत्तम वाहनकी प्राप्ति करें है, और उरुदेशमें होय तो वस्त्रप्राप्ति करै है, और कटिदेशमें होय तो सुंदर आसन, स्थ तुरंगादिक अथवा सुंदर स्त्रीको प्राप्ति करै, और उदरदेशमें प्राप्त होय तो मिष्टान्न भोजन करावे ॥ १२३ ॥ कंठे चेति ॥ कंठदेशमें कंठाभरणको लाभ होय और ललाटमें पबंधन For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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