SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AM.AAAAAAAAWA ६३० तत्त्वार्थसूत्रे रति क्रमेण सा दक्षिणा दिगुच्यते एवं-मकरादिमिथुनान्तान् राशीन् यस्यां दिशि व्यवस्थितो रविः क्रमेण चरति सा-उत्तरा दिग् व्यपदिश्यते । एवमन्तरालदिश ऊर्ध्वमधश्चापि रविसंयोगाद्बोध्याः, इति सवित्रपेक्षयैव दिव्यवहियते, इति सर्वेषां व्यावहारिकी खलु दिग्भवतीति भावः । न पुनर्निश्चयतः एवं वक्तुं शक्यते, अस्मदादीनां सवितुरुदयमपेक्ष्य या प्राचीदिक् उच्यते, सैव खलु-दिक् पूर्व विदेहकानां कृते प्रतीची भवति । तत्र-तदपेक्ष्य सवितुरस्तमितत्वात् , तस्माद्-व्यवहारमात्रमिदम् न तु-निश्चयः निश्चयनयापेक्षया तु-तिर्यगलोकमध्याऽवस्थितं समतलभूभागमेरुव्यवस्थितमाकाशप्रदेशाष्टकनिर्माणं चतुरस्राकृतिं रुचकं तावदिनियमहेतुतया-ऽऽश्रित्य यथासम्भवं दिगव्यवस्था कर्तव्या, स खलु रुचकः-ऐन्द्रयादीनां दिशाम्, आग्न्येयादीनां विदिशां च प्रभवो वर्तते ।। तत्र-दिशस्तावद् द्विप्रदेशादिकाः प्रदेशद्वयोत्तरवृद्धया वृद्धि लभमाना विशालशकटोद्विसंस्थानाकृतयः सादिकाः पर्यवसानरहिता विशिष्टाकृतिलब्धव्यवस्थानै रनन्तैराकाशदेशैर्जनितस्वरूपाश्चतस्रो भवन्ति ।। बिदिशः पुनर्मुक्तावलीसदृशाः एकैकाकाशप्रदेशरचनाकृतस्वरूपाः सादिकाः पर्यवसानरहिता दक्षिण दिशा कहलाती है और मकर राशि से लगा कर मिथुन राशि तक जिस दिशा में रहकर सूर्य क्रम से चलता है, वह उत्तर दिशा कहलाती है । इसी प्रकार इन चारों दिशाओं के मध्य की दिशाएँ अर्थात् विदिशाएँ, ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा भी सूर्य के संयोग से होती है । इस प्रकार सर्वत्र सूर्य की अपेक्षा से हो दिशाओं का व्यवहार होता है । तात्पर्य यह है कि सभी की दिशा व्यवहारिक है । मगर निश्चय से ऐसा नहीं कहा जा सकता । सूर्योदय की अपेक्षा से हमारे लिए जो पूर्वदिशा है, वही दिशा पूर्वविदेह के निवासियों के लिए पश्चिम दिशा है, क्योंकि उनकी अपेक्षा से वहाँ सूर्य अस्त होता है । इस कारण यह व्यवहार मात्र है, निश्चय नहीं। निश्चयनय की अपेक्षा से मध्यलोक में स्थित, मेरुपर्वत के समतल भूभाग में रहे हुए, आठ आकाशप्रदेशों से निर्मित चतुष्कोण जो रुचक है, वह दिशाओं के नियम का कारण है। उसी को केन्द्रमानकर दिशाओं की व्यवस्था करना चाहिए । वह रुचक ही पूर्वदिशाओं और आग्नेय आदि विदिशाओं का प्रभव-उद्गम स्थान है। दिशाएँ दो प्रदेशों से प्रारंभ होती हैं और दो प्रदेशों की वृद्धि से बढ़ती हुई विशाल शकटोद्धि के आकार की होती हैं । उनकी आदि है पर अन्त नहीं है । विशिष्ट आकार में उनका अवस्थान है, और अनन्त (अलोक की अपेक्षा) आकाश प्रदेशों से उनका स्वरूप उत्पन्न होता है । ये दिशाएँ चार हैं । विदिशाएँ मुक्तावली के समान होती हैं । एक-एक आकाशप्रदेश की रचना से उनका
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy