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________________ योपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. २२ जम्बूद्वीपगतसप्तक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम् ६२९ मुच्यते । हरयो-महाविदेहाश्च पञ्चालवद् बोध्याः रम्यमेव रम्यकमिति संज्ञायां स्वार्थे कनिन् प्रत्ययोंऽवसेयः हैमवतदेवनिवाससंबन्धात्-हैरण्यवतमुच्यते, एव मैरवतमपि बोध्यम् । तथाचैते सप्तवर्षाः क्षेत्राणि वा व्यपदिश्यन्ते, तत्र-वर्षधरसन्निधानाद् वर्षा उच्यन्ते, मनुजादि निवासाच्च क्षेत्राणि इत्युच्यन्ते, क्षिपन्ति-निवसन्ति प्राणिनो येषु तानि क्षेत्राणीति व्युत्पत्तेः तत्र-भरतस्योत्तरतो हैमवतम्-१ हैमवतस्योत्तरतो हरिवर्षः-३ हरिवर्षस्योत्तरतो महाविदेहवर्षः ४ महाविदेहस्योत्तरतो रम्यकवर्षः ५ रम्यकवर्षस्योत्तरतों हैरण्यवतम्-६ हैरण्यवतस्योत्तरतः-ऐरवतवर्षो वर्तते इति सर्वेषाञ्चैतेषां भरत, हैमवत हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यकवर्ष, हैरण्यवत ऐरवतवर्षाणां खलु व्यवहारनयापेक्षया सूर्यकृताद् दिनियमादुत्तरतो मेरुर्भवति, न तु-निश्चयेन उक्तञ्चा-ऽन्यत्रापि "सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थित" इति । एवञ्च-व्यवहारनयेन रविगतिजनितदिगुनियमात् सर्वेषामुत्तरतो मेरुपर्वतः, दक्षिणतश्च लवणोदधिरस्तीति फलितम् । व्यवहारनयमाश्रित्य यस्मिन्-क्षेत्रे यत्र रविरुदेति-सा दिक् प्राचीति व्यपदिश्यते, यस्यां दिशि रविरस्तमेति सा प्रतीची, कर्कटकादिधनुरन्तान् राशीन् यस्यां दिशि व्यवस्थितो रविश्वहै । जो क्षेत्र हिमवान् पर्वत से दूर नहीं निकट में है, वह हैमवत कहलाता है । हरि और महाविदेह पंचाल के समान समझ लेने चाहिए । जो क्षेत्र रम्य (रमणीय हो) वह रम्यक । यहाँ स्वार्थ में कनिन् प्रत्यय हुआ है । हैरण्यवत देव का निवास होने के कारण वह क्षेत्र भी हैरण्यवत कहलाता है । ऐरवत क्षेत्र का नाम भी इसी प्रकार समझना चाहिए । वे सातों वर्ष, क्षेत्र भी कहलाते हैं । वर्षधर पर्वतों के निकट होने से उन्हें वर्ष कहते हैं और मनुष्यों आदि का निवास होने से उन्हें क्षेत्र भी कहते हैं । क्षिपन्ति अर्थात् निवास करते हैं प्राणो जिनमें वह क्षेत्र; ऐसी क्षेत्र शब्द की व्युत्पत्ति है। इन सात वर्षों में भरत से उत्तर में हैमवत है, हैमवत से उत्तर में हरिवर्ष है, हरिवर्ष से उत्तर में महाविदेहवर्ष है, महाविदेह से उत्तर में रम्यकवर्ष है, रम्यकवर्ष से उत्तर में हैरण्यवतवर्ष है, और हैरण्यवतवर्ष से उत्तर में ऐरवत वर्ष है । इन सब भरत, हैमवत, हरि, महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरवत वर्षों से, ब्यवहारनय की उपेक्षा से, सूर्य के कारण होने वाले दिशाओं के नियम के अनुसार, मेरुपर्वत उत्तर में है, निश्चयनय से ऐसा नहीं है । अन्य जगह भी कहा है-'मेरुपर्वत सभी वर्षों के उत्तर में है।' इस कथन से यह फलित हुआ कि व्यवहारनय से, सूर्य की गति के कारण उत्पन्न दिशाओं के नियम के अनुसार मेरुपर्वत सभी के उत्तर में है और लवणसमुद्र सब के दक्षिण में है। व्यवहारनय की अपेक्षा जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य का उदय होता है, वह दिशा पूर्वदिशा कहलाती है। और जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है, वह पश्चिम दिशा कहलाती है। कर्क से लेकर धनुष् राशि पर्यन्त जिस दिशा में रहकर क्रम से सूर्य चलता है, वह
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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