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________________ ६२८ तत्त्वार्थसूत्रे रुक्मिण उत्तरतः शिखरिणो दक्षिणतः पूर्वापरसमुद्रयोर्मध्ये सन्निविष्टो हैरण्यवतवर्षः ।४ निषधस्य दक्षिणतः, महाहिमालयस्योत्तरतः पूर्वापरसमुद्रयोरन्तराले सन्निविष्टो हरिबर्षः । ५ नीलादुत्तरतः रुक्मिणो दक्षिणतः पूर्वापरसमुद्रयोर्मध्ये सन्निवेशविशिष्टो रम्यकवर्षः ।। निषधस्योत्तरतः, नीलादक्षिणतः पूर्वापरसमुद्रयोरन्तराले स्थितो महाविदेहवर्षो भवति ॥२२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व जम्बूद्वीपस्वरूपं विष्कम्भायामाकारादिभिः प्ररूपितम्, सम्प्रतितस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे वक्ष्यमाणैः षड्भिर्वर्षधरपर्वतैः प्रविभक्तानि सप्तक्षेत्राणि प्ररूपयितुमाह तत्थभरह-हेमवत-हरि-महाविदेह-रम्मग-हेरण्णवत एरवता-सत्तवासा-" इति । तत्र-तस्मिन् खलु पूर्वोक्तस्वरूपे जम्बूद्वीपे भरत-हैमवत-हरि-महाविदेह-रम्यक हैरण्यवत ऐरवताः सप्तवर्षाः क्षेत्राणि सन्ति । तथाच-भरतवर्ष-हैमवतवर्ष हरिवर्ष महाविदेहवर्ष-रम्यकवर्ष-हैरण्यवतवर्ष-ऐरवतवर्ष-नामधेयाः सप्तवर्षाः सन्ति, । एते भरतवर्षादयः सप्त न द्वीपान्तराणि सन्ति, अपितु-एकस्य जम्बूद्वीपस्यैव विशिष्टावधिका विभागा अवसेयाः जगतः स्थितेरनादित्वात् संज्ञामात्रमेव तेषां बोध्यम् । अथवा-भरतदेवनिवाससम्बन्धाद् भरतं-भारतं वोच्यते, हिमवतोऽदूरभवत्वाद् हैमवत (४) रुक्मि पर्वत से उत्तर में और शिखरि पर्वत से दक्षिण में हैरण्यवत नामक वर्ष है । इसके पूर्व और पश्चिम में भी लवणसमुद्र है। (५) निषध पर्वत से दक्षिण में और महाहिमवान् पर्वत से उत्तर में हरिवर्ष है। इसके भी पूर्व और पश्चिम में लवणसमुद्र है । (६) नील पर्वत से उत्तर में और रुक्मि पर्वत से दक्षिण में, पूर्व एवं पश्चिम समुद्र के मध्य में रम्यकवर्ष है। (७) निषधपर्वत से उत्तर में और नील पर्वत से दक्षिण में, पूर्व एवं पश्चिम समुद्र के मध्य में महाविदेहवर्ष अवस्थित है ॥२२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्व जम्बूद्वीप के स्वरूप का लम्बाई-चौड़ाई आदि द्वारा प्ररूपण किया गया है । अब उसी जम्बूद्वीप में आगे कहे जाने वाले छह वर्ष धर पर्वतों के कारण विभाजित हुए सात क्षेत्रों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं पूर्वोक्त स्वरूप वाले जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरिवास, महाविदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरवत नामक सात वर्ष-क्षेत्र हैं । इस प्रकार भरतवर्ष , हैमवतवर्ष , हरिवर्ष, महाविदेह. वर्ष, रम्यकवर्ष', हैरण्यवतवर्ष और, ऐरवतवर्ष नामक सात वर्ष हैं । ये सातों क्षेत्र जम्बूद्वीप के ही एक विशिष्ट सीमा वाले विभाग हैं, अलग द्वीप नहीं हैं । जगत् की स्थिति अनादिकालीन है, अतएव इनकी संज्ञा भी अनादिकालीन समझना चाहिए। अथवा भरत नामक देव के निवास के सम्बन्ध से वह क्षेत्र भी भरत या भारत कहलाता
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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