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________________ दीपिकानियुकिन अ०५सू. २१ जम्बूद्वीपस्यायामापेक्षया वैशिष्टम् ६२५ मध्यस्थानवद्-वृत्तः, भूमेरधस्तात् योजनसहस्रं प्रविष्टो नव-नवतियोजनसहस्र दृश्योच्छायो यदृश्यं योजनसहस्रं भूमौ वर्तते, तत्सर्वं विष्कम्भरूपबाहल्यायामाभ्यां दशसहस्रयोजनानि वर्तन्ते,। उपरिचयोजनसहस्रं यत्र चूलिकोद्भवति, त्रिकाण्डस्तावत्-त्रिलोकस्पृक् चतुर्भिश्च वनैर्भद्रशालनन्दन-सौमनस पाण्डुकैः परिवेष्टितो वर्तते । तत्र-काण्डं तावद् विशिष्टप्रमाणानुगतविच्छेदरूपं भवति, तत्र च यद् भूमौ प्रविष्टं शुद्धपृथिव्युपलवज्रशर्कराबहुल योजनसहस्रप्रमाणं वर्तते तत्प्रथमं काण्डमवसेयम्, । द्वितीयं काण्डन्तु-भूपरितलारब्धं त्रिषष्टियोजनसहस्राणि रजत-जातरूपाङ्कस्फटिकबहुलं वर्तते, तदुपरि तृतीयं काण्डं पुनः षत्रिंशदयोजनसहस्राणि जाम्बूनदबहुलं वर्तते । तदुपरि-वैडूर्यबहुलाऽस्य चूलिकाचत्वारिंशद्योजनोच्छ्रायाः । मूले-उद्गमप्रदेशे बाहल्यायामाभ्यां द्वादशयोजनानि, मध्येऽष्टौ योजनानि, उपरि चचात्वारि योजनानि सन्ति, भूमौ तावद् व्यवस्थितं प्रथमं भद्रशालवनं वलयाकारं वर्तते, भद्रशालवनभूमेः पञ्चयोजनशतान्युपरि-आरूह्य प्रथममेखलायां पञ्चयोजनशतविस्तारं द्वितीयं नन्दनं नाम वनं वर्तते, ततः सार्धद्विषष्टियोजनसहस्राणि-उपरि-आरूह्य पञ्चयोजनशतविस्तारमेव मेरुपर्वत सुवर्ण के थाल के मध्यस्थान के समान गोलाकार है। उसका एक हजार योजन-परिमित भाग भूमि के नीचे प्रविष्ट है और निन्न्यानवे हजार योजन-परिमित भाग पृथ्वी के ऊपर है जो दृश्य है । पृथ्वी में जो एक हजार योजन है उनकी लम्बाई, और चौडाई १०.९० १० भाग है । ऊपरी भाग में, जहाँ से चोटी प्रारंभ होती है, वहां एक हजार योजन ११ है। वह पर्वत तीन काण्डों वाला, तीनों लोकों को स्पर्श करने वाला तथा भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक नामक चार बनोंसे परिवेष्टित है । एक विशिष्ट प्रमाण से युक्त विच्छेद या रचनाविशेष को काण्ड कहते हैं । तीन काण्डों में से प्रथम काण्ड वह है जो भूमि के अंदर है, शुद्ध पृथ्वी, पाषाण, वज्र एवं शर्करा की बहुतायत वाला है और एक हजार योजन परिमाण वाला है । दूसरा काण्ड पृथ्वी के ऊपर से प्रारंभ होता है, त्रेसठ हजार योजन का है और चांदी, स्वर्ण अंक तथा स्फटिकत्नों की बहुलता वाला है । दूसरे काण्ड के ऊपर तीसरा काण्ड शुरु होता है । वह छत्तीस हजार योजन का है और जाम्बूनद की बहुलता से युक्त है । तीसरे काण्ड के ऊपर चालीस योजन ऊची चूलिका है, जिसमें वैडूर्य की बहुलता है। मूल अर्थात् उद्गमप्रदेश में चूलिका की चौड़ाई और लम्बाई बारह योजन की है। मध्यभाग में आठ योजन और ऊपर चार योजन की हैं । भूमि के ऊपर रहा हुआ पहला भद्रशालवन वलयाकार है । भद्रशालवन की भूमि से पाँच सौ योजन ऊपर प्रथम मेखला में पाँच सौ योजन विस्तृत नन्दन नामक दूसरा वन है । नन्दन वन से साढ़े बासठ हजार ७९
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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