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________________ तत्त्वार्थसूत्रे सौमनसं नाम तृतीयं द्वितीयमेखलायां वर्तते । ततोप्युपरि षट्त्रिंशत् सहस्राण्यारूह्य चतुर्नवत्यधिकचतुर्योजनशतविस्तृतं पाण्डुकं नामचतुर्थं वनं मेरोः शिखरे विलसति अयं खलु मेरूपर्वतो न सर्वत्र समप्रमाणतया प्रवृद्धो वर्तते, अपितु-प्रदेशपरिहाण्या परिहीयमानः प्रवृद्धोऽस्ति । तत्र-नन्दनवनादुपरि सौमनसवनाच्चाऽधस्तात् खलु मध्ये एकादशयोजनसहस्राण्यारूह्य विस्तारस्य योजनसहस्रं परिहीयते । समभूमिभागे मेरूपर्वतीयो विष्कम्भो दशसहस्रयोजनपरिमितोऽस्ति, तस्मात् एकादशयोजनेषु उर्ध्व गतेषु सत्सु एकयोजनं तथा एकादशेषु योजनशतेषु गतेषु एकं शतम् तथा एकादशेषु योजनसहस्रेषु गतेषु एकसहस्रविष्कम्भे न्यूनत्वं गच्छन्नस्ति । अनेन प्रकारेण नवनवतियोजनसहस्रेषु गतेषु एकं सहस्रं योजनस्य विष्कम्भोऽवशिष्टः उक्तञ्च जम्बूप्रज्ञप्तौ ३-सूत्रे-"जम्बृद्दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वभंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे ....एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण-" इत्यादि । जम्बूद्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः सर्वक्षुल्लको वृत्तः....एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण, इत्यादि, । पुनस्तत्रैवोक्तम्-१०३ सूत्रे-"जंबूद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जंबूद्दीवे मंदरे णामं पब्वए पण्णत्ते, णवणउतिजोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तंण एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं-" इति जम्बूद्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु-जम्बूद्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः नवनवतियोजनसहस्राणि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, एकं योजसहस्रमुद्वेधेन, इति ॥२१॥ मूलसूत्रम् “तत्थ-भरह-१ एरवत-२ हेमवत-३ हेरण्णवत-४ हरि-५ रम्मग-६ महाविदेहा-७ सत्तवासा-,, ॥२२॥ योजन की उंचाई पर पाँच सौ योजन विस्तृत सौमनस नामक तीसरा वन दूसरी मेखला में है सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन की उँचाई पर चार सौ चौरानवे योजन विस्तार वाला पाण्डुक नामक चौथा वन मेरु के शिखर पर शोभायमान है । यह मेरु पर्वत सभी जगह समान परिमाण वाला नहीं है किन्तु सम भूमि भाग पर मेरूपर्वत की चोड़ाई दशहजार योजन है वहाँ से ग्यारह योजन ऊपर जाने पर एक योजन और ग्यारह सौ योजन जाने पर एक सौ तथा ग्यारह हजार योजन जाने पर एक हजार योजन चौड़ाई में कम होता गया है। इस हिसाबसे ९९ नीन्यानवे हजार योजन ऊपर जाने पर एक हजार योजन का चौड़ा रह गया है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के तीसरे सूत्र में कहा है जम्बूद्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के अन्दर है, सब से छोटा है, गोलाकार है और लम्बाईचौड़ाई में एक लाख योजन विस्तृत है।' वहीं फिर सूत्र १०३ में कहा है-'जम्बूद्वीप के ठीक बीचोंबीच में मन्दरे नामक पर्वत कहा गया है । वह निन्यानवे हजार योजन जमीन पर उँचा है और एक हजार योजन जमीन के भीतर घुसा हुआ है-' ॥२१॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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