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________________ तत्वार्थसूत्रे नविशालः, जम्बूवृक्षोपलक्षितस्वाद जम्बूद्वीप इत्युच्यते, अम्बूवृक्षश्चो-त्तरकुरूणां मध्यवर्ती अनादिनिधनः पृथिवीपरिणामः स्वाभाविको वर्तते तदुपलक्षितः खलु जम्बूद्वीपो वर्तते इति भावः ।।२१।। तत्वाधनियुक्तिः– पूर्व द्वीपाना समुद्राणांञ्च-वलयाकृतित्वमुक्तम्, तथाच-जम्बूद्वीपस्यापि द्वीपतया वलयाकृतित्वं प्रसक्तम्-अतस्तदपवादरूपेणाह --- "सबभतरे वट्टे-" इत्यादि । जम्बूद्वीपः खलु द्वोपः सर्वाभ्यन्तरः सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां स्वयम्भूरमणपर्यन्तानां मध्ये सर्वाभ्यन्तरवर्ती वर्तते । स खलु जम्बूद्वीपो वृत्तः प्रतरवृत्तः कुम्भकारचक्रीकार न तु वलयाकारः लवणसमुद्रादीनां वलयाकृतित्वस्योक्तत्वात् । वलयाकृतिभिश्च तत्र चतुरस्राकारयोरपि परिवेष्टनसम्भवेन जम्बूद्वीपस्य त्रस्र चतुरस्राकृतित्वनिरासार्थ वृत्तग्रहणं कृतमवसेयम् । तथाच सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां वृत्तत्वे सत्यपि जम्बूद्वीपस्य प्रतरवृत्तत्वमेव कुलालचक्रादिवत्-नतु-वलयवृत्तत्वकरकङ्कणादिवत्, लवणसमुद्रादीनां वलयवृत्तत्वमेव न तु-प्रतरवृत्तत्वमितिभावः स जम्बूद्वीपः पुनः कीदृशः इत्याह—मेरुनाभिकः मेरुः-मन्दराचलो नाभौ-मध्ये यस्याऽसौ मेरुनाभिकः, यस्य मध्ये मेरुपर्वतो वर्तते तथाविधो मध्यवर्ति मेरुः खलु जम्बूद्वीपो वर्तते, पुनः कीदृशो जम्बूद्वीप इत्याह___ लक्षयोजनविष्कम्भः लक्ष-योजनानि विष्कम्भो नाम विस्तारो बाहल्यं यस्य स लक्षयोजनविष्कम्भः योजनशतसहस्रविस्तारः स जम्बूद्वीपो वर्तते इतिभावः । मेरूपर्वतश्च काश्चनस्थालपात्रस्यकहलाता है। वह जम्बू वृक्ष उत्तर कुरु क्षेत्र के मध्य में है, अनादि-अनन्त है, पार्थिव अर्थात् पृथ्वी का परिणमन और स्वाभाविक है। जम्बूद्वीप इसी वृक्ष से युक्त है ॥२३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले कहा गया है कि द्वीप और समुद्र वलय के आकार के हैं । इस कथन से जम्बूद्वीप के वलयाकार होने का प्रसंग आता है; मगर वह वलय के आकार का नहीं है; अतएव पूर्वोक्त कथन का अपवाद यहाँ प्रदर्शित किया जाता है जम्बूद्वीप सब द्वीप-समुद्रों के अन्दर है, अर्थात् स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त जितने भी द्वीप और समुद्र हैं, उन सब के भीतर है । वह प्रतरवृत्त अर्थात् कुंभार के चाक के समान गोल है, मगर चूडी के समान गोल नहीं है । लवण समुद्र आदि को वलय के आकार का कहा गया है और जो वलयाकार होते हैं वे तिकोने और चौकोर पदार्थों को भी वे विष्टित कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में जम्बूद्वीप को त्रिकोण या चतुष्कोण न समझ लिया जाय, इस उद्देश्य से सूत्र में 'वृत्त' शब्द ग्रहण किया गया है । अतएव समस्त द्वीपों और समुद्रों के गोलाकार होने पर भी जम्बूद्वीप प्रतरवृत्त है जैसे कुंभार का चाक होता है। वह हाथ में पहने जाने वाले कंकण के समाण गोलाकार नहीं है, जब कि उससे आगे के लवण समुद्र आदि वलय के समान गोलाकार हैं, प्रतरवृत्त नहीं हैं । जम्बूद्वीप मेरुनाभिक है अर्थात् उसके मध्यभाग में मन्दराचल-पर्वत है । जम्बूद्वीप का एक लाख योजन का विस्तार है । चाहे पूर्व से पश्चिम तक नापा जाय या उत्तर से दक्षिण तक; उसका परिमाण सर्वत्र एक लाख योजन ही होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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