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________________ wwww तत्त्वार्थसूत्रे . आदि पदेन— अन्यान्यपि नरकविशेषणानि संग्राह्यानि-। तथाहि-व्यपगतग्रह-नक्षत्र ज्योतिष्कप्रभाः-व्यपगताः दूरीभूताः ग्रहचन्द्रनक्षत्रज्योतिष्काणां प्रभा दीप्तियंत्र ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कप्रभाः तथाविधा भवन्ति । पुनः कीदृशाः-इत्याह-मेदो वसा पूयपटल रुधिरमांसचिक्खललिप्तानुलेपनतलाः, . . दो-वपा, वसा-शुद्धमांसस्नेहरूपा, "चर्वी' इति लोकप्रसिद्धा, पूयपटलः- दूषितरुधिरसमुदाय, रुधिरं-शोणितम्, मांसम् , चिक्खलम्-कर्दमः केशास्थिचर्मादि तैर्युक्तम् अनुले पनं येषां ते मेदो वसा पूयपटलरुधिरमांसचिक्खललिप्तानुलेपनतलाः तथाविधा नरका भवन्ति । पुनः कीडशा-इत्याह-अशुचि वीभत्साः नरकाः, परमदुरभिगन्धाः, कापोताग्निवर्णाभा:-कर्कशस्पर्शाः, दुरध्यासाः अशुभा नरकाः, अशुभाः-नरकेषु वेदनाः इति । उक्तञ्च प्रज्ञापवायां २–पदे नरकाधिकारे-"तेणं णरगा अंतो वट्टा वाहिं चतुरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिच्चंधयारतमसा ववगय गह चंदसूरणक्खत्तजोइसप्पहा मेदवसा पूयपटलरुहिरमंसचिक्खललित्ताणुलेवणतला, असुई बीभच्छा परमदुब्भिगंधा काउगगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभाओ णरगेसु वेयणाओ"-इत्यादि । ते खलु नरकाः अन्तोवृत्ताः वहिश्चतुरस्राः अधः क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः नित्यान्धकाराः तमसाः व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कप्रभाः, मेदो वसा प्यपटलरुधिरमांसचिक्खललिप्तानुलेपनतलाः, अशुचिबीभत्साः, परमदुरभिगन्धाः, कापोताग्निवर्णाभाः, कर्कशस्पर्शाः, दुरध्यासाः, अशुभाः नरकाः, अशुभाः--नरकेषु वेदनाः इत्यादि-॥१६॥ सूत्र में दिये हुए 'आदि' पद से नरकों के अन्यान्य विशेषण समझ लेने चाहिए । उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-नरको चन्द्र, सूर्य ग्रह नक्षत्र और ताराओं की प्रभा से रहित होते हैं। अर्थात् वहाँ न सूर्य-चन्द्रमा हैं न ग्रह-नक्षत्र हैं और न तारे ही हैं। ये सब ज्योतिष्क मध्य लोक में होते हैं । नरकों में इनका अभाव होने से सदैव गाढ़ा अन्धकार फैला रहता है। इसके अतिरिक्त नरक कैसे होते है, सो कहते हैं-उनके तलभाग मेद से वसा अर्थात् चर्बी से जो शुद्ध मांस का स्नेह रूप होती है, पूयपटल अर्थात् दूषित रूधिर का समूह जिसे मवाद भी कहते हैं, रूधिर अर्थात् लोहू, मांस, चिक्खल अर्थात् कीचड़ तथा केशो, हड्डियों एवं चमड़ी आदि अशुचि पदार्थों से व्याप्त होते हैं। वे अत्यन्त अशुचि, भयानक गंदे, घोर दुर्गन्ध से ब्याप्त, कापोत अग्नि के समान वर्ण वाले, कर्कश स्पर्श वाले, दुस्सह और अशुभ होते हैं। ऐसे नरकों में वेदनाएँ भी अशुभ ही होती हैं। प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे पद में नरक के प्रकरण में कहा है- नरक भीतर से गोलाकार बाहर से सम चौकर और नीचे से खुरपा के आकार के होते हैं उनमें सदैव अन्धकार बना रहता है, ग्रह चन्द्र सूर्य एवं नक्षत्र-इन ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित होते हैं, मेद, चर्वी, मवाद के समूह, रुधिर, मांस एवं कीचड़ या रुधिर- मांस आदि की कीचड़ से उनके तलभाग लिप्त होते हैं, वे अशुचि और वीभत्स, घोर दुर्गन्ध से भरे हुए,
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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