SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 614
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू० १६ नरकस्वरूपनिरूपणम् ६०७ पुनः कीदृशास्ते नरका इत्याह-नित्यान्धकाराः-तिर्यगूर्ध्वमधश्च सर्वतः-समन्तात् अनन्तेना-ऽत्यन्तभयानकेन च तमसा-नित्यान्धकाराः-नित्यं-सन्ततम् अन्धकारो यत्र ते नित्याधकाराः गाढान्धकारयुक्ताः, आदिपदेनाऽन्यान्यपि नरकविशेषणानि संग्राह्याणि सन्ति ॥१६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व रत्नप्रभादि सप्तपृथिवीस्थनरकेषु नारकारणां त्रिविधानि दुःखानि, नथा-परस्परोदीरणजनितानि नरकक्षेत्रानुभावोत्पन्नानि तृतीयपृथिवीपर्यन्तं संक्लिष्टासुरोदीरितानि च प्ररूपितानि, चतुर्थ्यादिपृथिवीषु च-परस्परोत्पादितानि क्षेत्रस्वभावजनितानि चेत्येवं द्विविधानि प्ररूपितानि, ___ सम्प्रति--तेषां नरकाणां स्वरूपाणि प्ररूपयितुमाह --"ते नरगा अंतोवट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणा तमसा णिच्चंधयाराइया-" इति। ते खलु-पूर्वोक्ताः रत्नप्रभादि सप्तपृथिवीस्थाः नरकाः अन्तो वृत्ताः-अन्तः अभ्यन्तरेवृत्ताः-वर्तुलाः सन्ति, बहिः-बाह्यदेशे च चतुरस्राः-चतस्रोऽस्रयो येषां ते चतुरस्रा:-समचतुष्ककोणाः, अधः - अधोभागे क्षुरप्रसंस्थानाः- क्षुरप्रो लघुच्छेदनाऽस्त्रविशेषः तस्येव संस्थानमाकारो येषां ते क्षुरप्रसंस्थानाः तथाविधा भवन्ति । एवं-तमसा सर्वतः समन्तात् सन्तमसेन नित्यान्धकाराः सततगाढान्धकारावृता भवन्ति । वह 'क्षुरप्र' कहा जाता है। इस नाम का एक विशेष अस्त्र होता है । जिनका आकार क्षुरप्र के समान हो उन्हें क्षुरप्रसंस्थान कहते हैं। . नरक और किस प्रकार के होते हैं सो कहते हैं-नरक नित्यान्धकार मय हैं अर्थात् वहाँ ऊपर, नीचे, तिर्छ, सर्वत्र अनन्त और अत्यन्त भयानक अंधकार हो अंधकार व्याप्त रहता है और वह सदैव बना रहता है। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से नरकों के अन्य विशेषण भी ग्रहण कर लेना चाहिए ॥१६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति पहले प्रतिपादन किया गया है कि सातों पृध्वियों के अन्दर जो नरक हैं, उनमें रहने वाले नारकों को तोन प्रकार के दुःख होते हैं- परस्पर में उदीरित दुःख, नरक क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले दुःख और तीसरी पृथ्वी तक परमाधार्मिक असुरों द्वारा उत्पन्न किये हुए दुःख । यह भी प्रतिपादन किया जा चुका है कि चौथी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक परस्पर उत्पन्न किये हुए और क्षेत्रस्वभाव से उत्पन्न दुःख ही होते हैं। अब नरकों का स्वरूप प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं पूर्वोक्त रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वीयों में । स्थित नरक भीतर से गोलाकार, बाहर से चौकर अर्थात् समचतुष्कोण और निचले भाग में क्षुरप्र अर्थात् खुरपा के समान आकार के होते हैं। क्षुरप्र एक छोटा अस्त्र है । जो छेदन करने के काम आता है। वहाँ सदैव घोर अंधकार व्याप्त रहता है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy