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________________ afrefनयुक्ति अ० ५ सु. ५ परिणामोऽपि धर्मपदवाच्यः स्यात् इत्यादि रूपो बोध्यः एवं तीव्र मिध्यात्वपरिणामोन्मार्गोपदेशेन धार्मिकजनबुद्धिभेदनसर्वत्र सिद्धदेवाऽनर्था ऽभिनिवेशाऽसमीक्ष्यकारिताऽसंयतजनार्चनादिप्रयोगाः संसारपरिवृद्धि मूलनिदानस्याऽनन्तसंसारानुबन्धिनो मिथ्यात्वस्य पापकर्मणो दर्शनमोहनीयविशेषस्य बन्धहेतवो भवन्ति इति निष्कर्षः । उक्तञ्च स्थानाङ्गे ५ स्थाने २ उद्देशके “पंचहि ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं करेंति तं जहा अरहंताणं अवन्नं वदमाणे अरहंतपन्नत्तस्स संघस्स अवणं वदमाणे विपक्कतवबंभचे राणं देवाणं अवण्णं वयमाणे " इति । दर्शन मोहनीयपापकर्मणो वन्धहेतु निरूपणम् ५७१ पञ्चभिः स्थानै जवा दुर्लभ बोधितया कर्म प्रकुर्वन्ति तद्यथा अर्हतामवर्ण वदन् - १ अर्हत्प्रज्ञ प्तस्य धर्मस्याऽवर्णे वदन् २ आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् - ३ चातुर्वर्णस्य संघस्याऽवर्ण वदन् ४ विपक्व - तपोब्रह्मचर्याणां देवानामवर्णं वदन् ५ इति ||५|| मूल सूत्रम् — 'तिव्वकसायजणियत्तपरिणामेणं चारित्तमोहणिज्जं' छाया - " तीव्र कषायजनितात्मपरिणामेण चारित्रमोहनीयम् - " ॥६॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वसूत्रे मिथ्यात्वरूपदर्शनमोहनीय विशेषपापकर्मबन्धहेतुस्वरूपं प्ररूपजाएगा तो क्रोधादि परिणाम भी धर्म कहलाएँगे । भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का अवर्णवाद इस प्रकार समझना चाहिए दूसरे बलवान् देव अल्प बल वाले देव को हठात् अपने वश में कर लेते हैं ? उनके नेत्र स्तब्ध रहते हैं - आँखों के पलक नहीं गिरते, वे अत्यन्त असदभूत दोषों को प्रकट करने वाले होते हैं, इत्यादि । इसी प्रकार तीव्र मिथ्यात्व रूप परिणाम से उन्मार्ग का उपदेश करना, जनता की बुद्धि में भेद उत्पन्न करना अर्थात् उसकी श्रद्धा को डिगाना, आवेश के वशीभूत होकर विना सोचेसमझे काम कर बैठना, असंयमी जनों की पूजा करना, ये सब संसार - वृद्धि के मूल कारण, अनन्त संसार को बढाने वाले, दर्शनमोहनीय रूप मिथ्यात्व पापकर्म के बन्ध के कारण हैं । स्थानांगसूत्र के स्थान ५ उद्देशक २ में कहा है- 'पाँच कारणों से जीव दुर्लभ बोधि वाले कर्मों का उपार्जन करते हैं - ( १ ) अरहंतों का अवर्णवाद करने से (२) अर्हत्प्ररूपित धर्म का अवर्णवाद करते से (३) आचार्य और उपाध्याय का अवर्णवाद करने से (४) चार प्रकार के संघ का अवर्णवाद करने से (५) परिपक्व तप एवं ब्रह्मचर्य का फल भोगने वाले देवों का वर्णवाद करने से ॥५॥ सूत्रार्थ – 'तिव्वकसायजणिय' इत्यादि || सूत्र ६ ॥ तीव्र कषाय के उदय से उत्पन्न आत्मा के परिणामों से चारित्रमोहनीय कर्म का बन्ध होता है ॥६॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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