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________________ ५७० तत्त्वार्थसूत्र चाऽवर्णवादः । संघस्य श्रमणादीनां संघस्या-ऽवर्णवादो यथा श्रमणास्तावत् केवलबाह्यशौचाचाराः पूर्वजन्मोपार्जितपापकमोदयजनित केशोल्लुचनाताएन्.दुःखानुभावनः कलहप्रिया असहिष्णवः प्रागवितीर्णदानाः पुनरपि दुःखिता एव भविष्यन्ति इत्यादि रूपोऽवसेयः । एवं श्रमणीनामपि अवर्णवादोऽवसेयः ___एवं श्रावकश्राविकानामवर्णवादो बोध्यः सामान्यतो वा संघस्याऽवर्णख्यापनम् तथाहि गर्दभशगालकाकश्वानादीनामपि समूहः संघ एव भवति तस्मात्को विशेष संघस्येति न किमपि गौरवास्पदं संघ इति । श्रुतस्याऽवर्णवादो यथा श्रुतं तावत् अतिदग्धप्राकृतभाषायां निबद्धं व्रतं कायशोषणप्रायश्चित्तप्रमादोपदेशपुनरुक्ततादोषबहुलं कुत्सितापवादप्रायं वर्तते । इत्यादिरूपो बोध्यः । एवं सर्वतो हिंसादि विरतिलक्षणपञ्चमहाव्रतहेतुकस्य धर्मस्य क्षमादेर्दशलक्षणकस्याऽवर्णवादो यथाऽभ्युदयाऽपवर्गहेतुभूतो धर्मो न प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन विषयी क्रियते न वाऽयमप्राणिकोधर्मो ऽस्तीत्यपि वक्तुं शक्यते, नाऽपि पुद्गला धर्मपदवाच्याः सम्भवन्ति धर्मस्य पुद्गत्वाऽसम्भवात् न वाऽत्मपरिणामविशेषो धर्मः सम्भवति तस्याऽऽत्मशब्दपरिणामवाच्यत्वे क्रोधादिमोहनीय का बन्ध होता है। श्रमण आदि के संघ का अवर्णवाद जैसे-इन साधुओं में केवल बाह्य शौच का ही आचार है, पूर्वजन्म में ये पाप उपार्जन करके आये हैं, उसी के कारण केशलोंच आतापना आदि का कष्ट भोगते हैं, ये कलहप्रिय हैं, असहनशील हैं, इन्होंने पूर्वभव में दान नहीं दिया है, आगे फिर दुःख ही भोगेंगे, इत्यादि । ऐसा ही साध्वियों का अवर्णवाद भी समझ लेना चाहिए और श्रावक-श्राविकाओं का भी अवर्णवाद समझ लेना चाहिए। ___अथवा सामान्य रूप से संघ का अवर्णवाद करना, जैसे-गधों, सियारों, काकों और कुत्तों का भी समूह संघ ही कहलाता है ! फिर संघ में क्या विशेषता है ? संध में कुछ भी गौरव की बात नहीं है। श्रुत का अवर्णवाद, जैसे-आगम मूखों की प्राकृत भाषा में लिखा गया है ! व्रत, शरीर शोषण, प्रायश्चित्त, और प्रमाद के उपदेश की पुनरुक्तियाँ उसमें भरी पड़ी हैं | खोटेखोटे अपवाद बतलाये हैं, इत्यादि । पूर्ण रूप से हिंसा आदि से विरति रूप पाँच महाव्रत हेतुक तथा क्षमा आदि दस लक्षणों वाले धर्म का अवर्णवाद इस प्रकार होता है-स्वर्ग और मोक्ष का कारण कहा जाने वाला धर्म प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं जाना जाता, धर्म अप्राणिक है ऐसा नहीं कहा जा सकता. पुद्गल 'धर्म' इस पद के वाच्य नहीं हो सकते, क्योंकि धर्म पुद्गल नहीं हो सकता । धर्म आत्मा का परिणाम भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसे आत्मा का परिणाम कहा
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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