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________________ - - ५७२ तत्वार्थको तम् सम्प्रति षोडशानन्ताऽनुबन्धि क्रोधादिकषायवेदनीयहास्यादि नोकषायरूपचरित्रमोहनीयपापकर्मबन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह--- "तिव्वकसायजणियत्तपरिणामेणं चारित्तमोहणिज्ज" इति । तीवकषायजनितात्मपरिणामेन-चारित्रमोहनीयं षोडशकषाय नव नोकषायरूपं पापकर्म बध्यते इति तत्र क्रोधमानमाया लोभादीनां कषायाणामुद्यात् विपाकात् तीव्रो यः आत्मनः परिणामविशेष स्तेन चारित्रमोहनीयस्य षोडशविधकषायरूपस्य नवविध नोकषायरूपस्य च पापकर्मणो बन्धो भवतीति भावः ॥६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व द्यधिकाशीतिपापकर्मसु क्रमशः पञ्च ज्ञानावरण नव दर्शनावरण सातावेदनीय मिथ्यात्वपापकर्मणां बन्धहेतवः प्रतिपादिताः सम्प्रति क्रमप्राप्तस्य चारित्रमोहनीयरूपस्य षोडशकषायनवनोकषायपापकर्मणो बन्धहेतून् प्रतिपादयितुमाह "तिव्वकसायजणियत्त-" इत्यादि । तीव्र कषायात्मजनितपरिणामेन चारित्रमोहनीयरूपं षोडशकषायानवनोकषायाख्यं पापकर्म बध्यते इति तत्र कषन्ति नरकादिदुर्गतौ पातयन्तीति कषाया दुर्गतिपातलक्षणस्वभावा । यद्वा कष्यते संसारे समाकृष्यते आत्मा यै स्ते कषाया यद्वा कषति हिनस्ति विषयकरवालेन प्राणिन इतिकषः संसारः तस्य लाभो यैस्ते कषायाः । कष्यन्ते संसाराटवीगमनाऽगमनादिकण्टकेषु घृष्यन्ते प्राणिनो यैस्ते कषायाः कृष्यते सुख तत्त्वार्थदीपिका --- पूर्वसूत्र में मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहनीय पापकर्म के बन्ध के हेतुओं का स्वरूप कहा गया, अब अनन्तानुबंधी क्रोध आदि सोलह कषायों के और हास्य आदि नो कषायों के बन्ध हेतु बतलाते हैं तीव्र कषाय के कारण आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उनसे सोलह प्रकार के कषायवेदनीय और नौ प्रकार के नो कषायवेदनीय चारित्रमोहनीय पापकर्म का बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों के उदय से आत्मा में जो तीव्र परिणाम विशेष उत्पन्न होता है, उससे सोलह प्रकार के कषायवेदनीय और नौ प्रकार के नो कषायवेदनीय पाप कर्म का बन्ध होता है ॥६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले बयासी प्रकार के पापकर्मों में से पांच प्रकारके ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय, साता-असाता वेदनीय और मिथ्यात्व पापकर्मो के बन्धहेतुओं का प्रतिपादन किया गया, अब क्रमप्राप्त सोलह प्रकार के चारित्रमोहनीय और नौ प्रकार के नो कषायमोहनीय पाप कर्म के बन्धहेतुओं का प्रतिपादन करते हैं तीव्र कषाय से उत्पन्न आत्मा के परिणामों से सोलह कषाय और नौ नो कषाय रूप चारित्र मोहनीय पापकर्म का बन्ध होता है। कषन्ति अर्थात् जीव को नरक गति आदि दुर्गति में जो गिराते हैं, उन्हें कषाय कहते हैं। अथवा कष्यते अर्थात् जिनके द्वारा जीव संसार में आकर्षित किया जाता है, वे कषाय । अथवा
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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