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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू० ५ दर्शनमोहनीयपापकर्मणो बन्धहेतुनिरूपणम् ५६९ र्याणाम् उपाध्यायानां सम्यग् ज्ञानदर्शनचारित्रसम्पन्नानां रागद्वेषमोहसमावेशादसद्भूतदोषोद्भावनरूपावर्णवादेन एवं कुलस्य, गणस्य चा-ऽवर्णवादेन श्रमण-श्रमणी श्रावकश्राविकारूपस्य चातुर्वर्णस्य सङ्घस्य, यद्वा-सम्यक्त्वज्ञानसंवरतपोरूपचातुर्वर्णसङ्घस्याऽवर्णवादेन एवम्-तीर्थकरप्रोक्तस्य द्वादशाङ्गाचारादिदृष्टिवादान्तरूपाङ्गसहितस्यौ-पपातिकप्रभृत्यङ्गार्थानुवादरूपोपाङ्गसहितस्य च श्रुतस्य प्रवचनस्या-ऽऽगमरूपस्या-ऽवर्णवादेन पञ्चमहाव्रतजन्यस्य क्षमादिरूपस्य दशलक्षणकस्य क्षान्त्यादिधर्मस्याऽवर्णवादेन- सुराणाम् तपःसंयममाराध्य प्राप्तदेव भावानां विपक्वतपो ब्रह्मचर्यहेतुक प्राप्तदेवायुष्काणां देवानां भवनपतिवानव्यन्तर-ज्योतिष्कवैमानिकाना मवर्णवादेन च मिथ्यात्वरूपदर्शनमोहनीयविशेषपापकर्मबन्धो भवतीति भावः । तत्र तीर्थकराणामवर्णवादो यथा नास्त्यर्हन् जानानो वा कथं भोगान् भुनक्ति ? प्रामतिका समवसरणादिरूपा वोपजीवतोत्यादि । आचार्योपाध्यायानामवर्णवादो बाला एते इत्यादि । एवं कुलगणयोः तत्र कुलस्य एकगुरुकसाधुसमुदायस्य गणस्य अनेकगुरुकसाधुसमुदायस्य उपाध्यायों की, जो सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र से सम्पन्न होते हैं, राग द्वेष या मोह के आवेश से निन्दा करने के कारण अर्थात् असद् भूत दोषों को प्रकट करने रूप अवर्णवाद करने से, ___इसी प्रकार कुल और गण का अवर्णवाद करने से, साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संध का अवर्णवाद करने से या सम्यक्त्व-ज्ञान-संवर-और तप रूप चार प्रकार के संघ का अवर्णवाद करने से, इसी प्रकार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित आचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त, अंगों के अनुवाद रूप औपपातिक वगैरह उपांगों सहित श्रुत-प्रवचन-आगम का अवर्णवाद करने से, तथा पांच महाव्रतों से उत्पन्न होने वाले क्षमा आदि स्वरूप वाले दशलक्षण क्षमा आदि धर्म का अवर्णवाद करने से, तप और संयम की आराधना करके देवगति प्राप्त करने वाले तथा परिपक्व तप एवं ब्रह्मचर्य से जिन्हें देवायु की प्राप्ति हुई है ऐसे भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का अवर्णवाद करने से मिथ्यात्व रूप दर्शनमोहनीय पापकर्म का बन्ध होता है। ___ इनमें से तीर्थकरों का अवर्णवाद इस प्रकार होता है-अर्हन्त नहीं हैं-नहीं होते ! वे जानते हुए कैसे भोग-भोगते हैं ! समवसरण आदि रूप प्राभृति का आश्रय लेते हैं ! इत्यादि आचार्यों और उपाध्यायों आदि का अवर्णवाद जैसे-ये बालक हैं। इत्यादि कहना एक ही गुरु के शिष्य जो साधु होते हैं, उनका समूह कुल कहलाता है और अनेक गुरुओं के शिष्यों का समूह गण कहलाता है। उनका अवर्णवाद करने से भी मिथ्यात्व
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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