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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ. ३ सू१८. वेदनीयनामगोत्रकर्मणां जघन्यस्थितिः ४०९ “त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि- उत्कृष्टेन व्याख्याता - । रुत्कृष्टा स्थितिस्तु आयुष्कर्मणः - अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यका- ॥ १ ॥ इति ॥ १७ ॥ मूलसूत्रम् - " वेयणिज्जस्स बारसमुहुत्ता ठिई जहनिया - " ॥ १८ ॥ छाया - "वेदनीयस्य द्वादशमुहूर्ता स्थिति र्जघयिका – ” ॥ १८ ॥ तत्वार्थदीपिका -- पूर्वं ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्ममूलप्रकृतीनां सामान्येन स्थिति प्रतिपादिता, सम्प्रति-जघन्यां स्थितिं प्ररूपयितुं पूर्वोक्तसूत्रक्रमानुसारेण वेदनीयस्य कर्मणो जघन्यां स्थितिमाह – " संपराइय सायावेयणिज्जस्स-" इत्यादि । साम्परायिक सातावेदनीयस्य कर्मणोद्वादशमुहूर्ता जघन्यिका- जघन्या स्थितिर्भवति, उत्कृष्टा स्थितिस्तु - पश्ञ्चदशसागरोपमकोटिकोट ः प्रज्ञप्ता ॥ १८ ॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः – पूर्वं तावदष्टविधकर्ममूलप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिकालः प्ररूपितः सम्प्रति सूत्रक्रमानुश्रयणेन वेदनीयस्य कर्मणो जघन्यस्थितिकालं प्ररूपयति – “वेयणिज्जस्स बारस मुहुत्ता ठिई जहन्निया - " इति । वेदनीयस्य मूलप्रकृतिरूपस्य कर्मणो द्वादशमुहूर्ता स्थितिः, जघन्यिका - जघन्या भवति । तत्राSबाधाकालोऽन्तर्मुहूर्तम्, तस्योत्कृष्टा स्थितिस्तु - पञ्चदशसागरोपमकोटिकोट्यः प्रज्ञप्ता । तत्राऽबाधाकालस्तु - पञ्चदश शतवर्षाणि, असातावेदनीयस्य तावद् वेदनीयकर्मोत्तर प्रकृतिविशेष रूपस्योकृष्टा स्थिति स्त्रित्सागरोपमकोटिकोटयः तस्य जघन्या पुनः स्थितिः सागरोपमस्य सप्तभागास्त्रयः पल्योपमा संख्येयभागोनाः प्रज्ञप्ताः अत्राऽबाधाकालउत्कृष्टायां स्थितौ सहस्रत्रयवर्षाणि, जघन्यायां पुनरन्तर्मुहूर्तमात्रम्- अबाधाकालो बोध्यः ॥ १८ ॥ मूलसूत्रम् -- “ नामगोत्ताणं अट्ठमुहुत्ता ठिई जहन्निया - " ॥१९॥ सूत्रार्थ - - ' वेयणिजस्स' इत्यादि सूत्र ॥ १८ ॥ वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त्त की है ॥ १८ ॥ तत्त्वार्थदीपिका - इससे पहले ज्ञानावरणीय आदि आठों मूल प्रकृतियों का सामान्य रूप से उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध कहा गया है, अब वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति कहते हैं— वेदनीय रूप ( साम्परायिक सातावेदनीय ) मूल प्रकृति की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त्त की है । उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोड़ा कोड़ो सागरोपम की कही गई है ॥ १८ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति — पहले मूल कर्मप्रकृतियों का सामान्य रूपसे स्थितिकाल कहा गया है, अब वेदनीय की स्थिति का प्ररूपण किया जाता है— वेदनीय कर्म ( साम्परायिक साता वेदनीय ) की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की है। इसका अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त का है ॥ १८ ॥ ५२
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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