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________________ ४०८ तत्त्वार्यसूचे तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्व नामगोत्रकर्मणो स्थितिकालावधिः प्रतिपादितः सम्प्रति पुमरायुष्यकर्मणो मूलप्रकृतेरुत्कृष्टस्थितिकालावधि प्रतिपादयितुमाह-"आउकम्मस्स तेत्तीस सागरोवमा ठिई उक्कोसा-" इति । आयुःकर्मणो मूलप्रकृतेस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागाऽभ्यधिकानि उत्कृष्टा स्थितिः सम्भवति, जघन्या स्थितिस्तु-अन्तर्मुहूर्तमात्रा भवतीत्यग्रे समाधास्यते, अत्रच-सागरोपमग्रहणेन कोटिकोटिपदस्य निवृत्तिरवगन्तव्या । त्रयस्त्रिंशत् पदोपादानादपि कोटिकोटिग्रहणस्य निवृत्तिर्भवति । अत्रच पूर्वकोटित्रिभागोऽबाधाकालो बोध्यः । तदनन्तरञ्च बाधाकालो भवति तथाच यत्कालादारभ्याऽऽयुष्यकर्म उदयावलिकाप्रविष्टं सत् यावन्निःशेषमुपक्षीणं भवति तावान्कालो बोध्यः । एवञ्च-बन्धकालादारभ्य पूर्वकोटित्रिभागेऽबाधाकाले व्यतीते सति आयुःकर्ममूलप्रकृतिरुदयावलिकां प्रविशति । यावत्कालं तत्कर्म नानुभूयते तावत्कालोऽबाधाकालपदेन व्यपदिश्यते, इयञ्चापि-आयुष्यकर्मणस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपोत्कृष्टा स्थितिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य मिथ्यादृष्टेरवगन्तव्या-1, "तथाचोक्तमुत्तराध्ययने-३३-अध्ययने-२२-गाथायाम् तेत्तीससागरोवमा-उक्कोसेण विगाहिया-।। ठिई उ आउ कम्मस्स-अंतोमुहत्तं जहनिया-॥१॥ इति तत्त्वार्थनियुक्ति-नाम और गोत्रकर्म की स्थिति का काल बतलाया जा चुका है, अब आयुष्य नामक मूलप्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति काल प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं आयुकर्म नामक मूलप्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व के तीसरे भाग से अधिक तेतीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति समझनी चाहिए । जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, यह आगे कहा जाएगा । यहाँ 'सागरोपम' का ग्रहण करने से 'कोड़ाकोड़ी' पद का निषेध हो जाता है । 'तत्तीस' पद ग्रहण करने से भी 'कोड़ाकोड़ी' की निवृत्ति हो जाती है । तात्पर्य यह है कि आयुकर्म की स्थिति सिर्फ तेतीस सागरोपम की है, तेतीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की नहीं है। ...यहाँ करोड़ पूर्व का त्रिभाग अबाधाकाल समझना चाहिए। उसके पश्चात् बाधाकाल का प्रारंभ होता है । जिस काल में आयु कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट होता है उससे लेकर पूर्ण रूप से उसके क्षय होने तक का काल बाधाकाल कहलाता है। इस प्रकार आयु बन्ध के पश्चात् करोड़ पूर्व का तीसरा भाग बीतने पर आयु कर्म का उदय होता है । जितने काल तक उसका अनुभव नहीं होता, उतना काल 'अबाधाकाल' कहलाता है । आयुकर्म की तेतीस सागरोपन की जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है, वह संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से समझना चाहिए । .... उत्तराध्ययन सूत्र के ३३ वें अध्ययन की २२ वी गाथा में कहा है-'आयु कर्म की उस्कृष्ठ स्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है ॥ १७ ॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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