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________________ M दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. १६ नामगोत्रकर्मणो स्थितिबन्धनिरूपम् ४०७ लिकाप्रविष्टं सत् यावनिःशेषमुपक्षीणं भवति तावान् कालो बाधाकालोऽवगन्तव्यः । ___एवञ्च-बन्धकालादारभ्य वर्षसहस्रद्वये व्यतीते सति नामकर्म-गोत्रकर्म च उदयावलिका प्रविशति, नामकर्म गोत्रकर्म च बन्धकालादारभ्य यावन्तं कालं नानुभूयते तावान्कालोऽवाधार कालस्तयोरुच्यते, इयञ्चापि नामकर्मणो-गोत्रकर्मणश्चोत्कृष्टा विंशतिसागरोपमा स्थितिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकमिध्यादृष्टेः प्राणिनोऽवसेया । तथाचोक्तमुत्तराध्ययने-३३-अध्ययने-२३-गाथायाम्"उदहीसरिसनामाणं-वीसइकोडिकोडीओ-। नामगोत्ताणं उक्कोसा-अंतोमुहुत्तं जहन्निया-॥१॥ इति । "उदधिसदृशनाम्नां विशतिः कोटिकोटयः । नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अन्तर्महूर्त जघन्यिका ॥१॥ इति ॥ १६ ॥ मूलसूत्रम्-"आउकम्मस्स तेत्तीस सागरोवमा ठिई उक्कोसा-" ॥१७॥ छाया-आयुः कर्मणस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा स्थितिः- " ॥१७॥ तत्त्वार्थदीपिका---पूर्वसूत्रे नामगोत्रकर्मणो मूलप्रकृत्योरुत्कृष्टा स्थितिः प्ररूपिता, सम्प्रतिपुनरायुष्यकर्मणोर्मूलप्रकृतेरुत्कृष्टां स्थितिं प्ररूपयितुमाह- "आउकम्मस्स-" इत्यादि। आयुः कर्मणो मूलप्रकृतेस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागाऽभ्यधिकानि-उत्कृष्टास्थितिरवगन्व्या, जघन्या स्थितिः पुनरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा भवतीत्यग्रे वक्ष्यते-॥ १७ ॥ जाने तक का समय बाधाकाल कहलाता है। इस प्रकार बन्धकाल से लेकर दो सहस्र वर्ष का व्यतीत हो जाने पर नामकर्म और गोत्रकर्म उदयावलिका में प्रविष्ट होते हैं। नामकर्म और गोत्रकर्म बन्ध के समय से लेकर जितने समय तक अनुभव में नहीं आते, उतना समय उनका अबाधाकाल कहलाता हैं । नाम और गोत्रकर्म की बीस कोडाकोड़ी सागरोपम की जो उत्कृष्ट स्थिति कहीं गई है, उसका बन्ध संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव ही कर सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र के ३३ वें अध्ययन की गाथा २३ में कहा है-नामकर्म और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है ॥१६॥ . सूत्रार्थ-'आउकम्मस्स तेत्तीस' इत्यादि सूत्र-१७ आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की हैं ॥१७॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में नाम और गोत्र नामक मूल प्रकृतियों की स्थिति का निलपण किया गया, अब आयु नामक मूलप्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं ____ आयु नामक मूलप्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक तेतीस सागरोपम की जानना चाहिए । इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की है, यह आगे कहेंगे ॥१०॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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