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________________ तत्त्वार्थसूत्रे उक्तञ्चोत्तराध्ययने ३३ अध्ययने २१ गाथायाम्"उदहीसरिसनामाण सत्तर कोडिकोडीओ । मोहणिज्जस्स उक्कोसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१॥ इति । छाया-"उदधिसरशनाम्नां सप्ततिकोटिकोट्यः । मोहनीयस्य उत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका ॥१॥ इति ॥१५॥ मूलसूत्रम्-"नामगोत्ताणं वीसईकोडिकोडीओ-" ॥१६॥ छाया--"नाम-गोत्रयोविंशतिः कोटिकोट्यः-" ॥१६॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे मोहनीयस्य कर्मणः स्थितिकालः प्ररूपितः, सम्प्रति-नामगोत्रयोः कर्म मूलप्रकृत्योः स्थितिकालं प्ररूपयितुमाह-नामगोत्ताणं वीसईकोडाकोडीओ-" इति । नामगोत्रयोः कर्मणो रुत्कृष्टतः स्थितिर्विशतिः कोटिकोटयः प्रज्ञप्ता, जघन्यतोऽष्टमुहूर्तप्रमाणा स्थितिबोध्या-॥३६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्व मोहनीयकर्ममूलप्रकृतेः स्थितिः कालावधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति नामगोत्रकर्मणोः स्थितिकालं प्रतिपादयितुमाह-"नामगोत्ताणं वीसईकोडिकोडीओ-" इति । नामगोत्रयोः नामकर्ममूलप्रकृतेः-गोत्रकर्ममूलप्रकृतेश्च प्रत्येकं विंशतिसागरोपमकोटिकोटयः उत्कृष्टतः स्थितिः सम्भवति । तत्र-प्रत्येक वर्षसहस्रद्वयं नामकर्मणो-गोत्रकर्मणश्चाऽबाधाकालो भवति, तदनन्तरं बाधाकालो भवति द्वयोरपि, तथाच-यदारभ्य नामकर्मगोत्रकर्म च-उदयाव- उत्तराध्ययन सूत्र के ३३ वें अध्ययन में कहा है 'मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है और जघन्य "स्थिति अन्तर्मुहर्त की है ' ॥ १५ सूत्रार्य-'नामगोत्ताणं बिसई' इत्यादि सूत्र-१६ नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है ॥ १६ ॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में मोहनीय कर्म का स्थिति काल प्ररूपित किया गया है, भब नाम और गोत्र नामक मूल प्रकृतियों का स्थितिकाल प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं-- . नाम कर्म और गोत्र कर्म की स्थिति का उत्कृष्ट काल वीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है। इनका जघन्य स्थितिकाल आठ मुहूर्त समझना चाहिए ॥ १६ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्ववर्ती सूत्र में मोहनीयकर्म की स्थिति कही गई है, अब नाम और गोत्रकर्म की स्थिति का काल प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं , नामकर्म और गोत्रकर्म नामक मूलप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस-बीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है इन दोनों का अबाधाकाल दो-दो हजार वर्ष का है । तत्पश्चात् बाधाकाल प्रारंभ हो जाता है। उदयावलिका में प्रविष्ट होने के समय से आरंभ होकर पूर्णरूप से क्षय हो।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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