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________________ दीपिकाfनयुक्तिश्च अ० ३ सू. ३ बन्धस्य हेतुस्वरूपनिरूपणम् ३५५ प्रमादःपुन-रिन्द्रियविकथोत्कटनिद्रारूपः, इन्द्रियदोषान्मोक्षमार्गशैथिल्यं प्रमादः कुशलकर्मसु वा-ऽनादरः । कषायस्तु– क्रोध - मान-माया - लोभाः अनन्तानुबन्धिप्रभृतयश्च ते । योगाः पुनः मनो-वाकायव्यापारविशेषाः । एते पञ्च मिध्यादर्शनादयः कर्मवर्गाणायोग्यपुद्गलस्कन्धानामात्मप्रदेशानाञ्च परस्परानुगतिलक्षणस्य बन्धस्य सामान्यहेतवो भवन्ति । तत्र--मिथ्यादर्शनादीनां वाच्यार्थस्तु - मिथ्याऽयथार्थम् -- अलीकं दर्शनं दृष्टिः, अयथार्थश्रद्धानंमिथ्यादर्शनम् हिंसादिसावयव्यापारतो विरमणं - विरतिः संयमः । न विरतिरविरतिः असंयमः, प्राणिवधादिगर्हितकर्म तोऽनिवृत्तिः प्रमाद्यत्यनेनेति प्रमादः, अनवधानत्वम् । कष्यते-हिंस्यते शारीर-मानसदुःखैरात्मा यत्र सं कषः संसारः, तस्याऽऽया आगमनहेतवः, उपादानकारणानि वा कषायाः क्रोधमान - माया लोभाः । युज्यतेऽनेन मनोवाक्कायव्यापारलक्षणेन नो कर्मणा-योगद्रव्येण वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमजनितेन, वीर्य पर्यायेण वा इति योगः । तत्र - सम्यग्दर्शनाद् विपरीतम् अयथार्थश्रद्धानलक्षणं मिथ्यादर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, अभिगृहीतम् -- अनभिगृहीतञ्च । सन्दिग्धन्तु अनभिगृहीतमिथ्यादर्शनभेदः । तत्र-मत्यज्ञानादिकिमपि परिकलप्याडसम्यग्दर्शनाऽभ्युपगमः “ एतदेवैकं सत्य" मित्येवं रूपोऽभ्युके विषयों में राग-द्वेष पूर्वक प्रवृत्ति करना, विकथाएं करना, गहरी और खूब निद्रा लेना, इन्द्रियों के दोष से मोक्षमार्ग में शिथिलता होना अथवा कुशल कृत्यों में आदरभाव न होना प्रमाद कहलाता है । अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से चार-चार प्रकार के क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय हैं। मानसिक, वाचनिक और कायिक व्यापार योग कहलाता है। ये मिथ्यादर्शन आदि पाँच कर्मबन्ध के सामान्य कारण हैं मिथ्यादर्शन आदि का शब्दार्थ इस प्रकार है - मिथ्या अर्थात् अयथार्थ - झूठा, दर्शन अर्थात् दृष्टि | अभिप्राय यह है कि अयथार्थ श्रद्धान मिथ्यादर्श है । हिंसा आदि पापमय कृत्यों से विरत होना विरति अर्थात् संयम है । विरति न होना अविरति अर्थात् असंयम है, जिसका अभिप्राय है हिंसा आदि निन्द्य कर्मों का त्याग न करना । सावधान न रहना प्रमाद कहलाता है । कष का जिससे आय हो, वह कषाय । जीव जहाँ शारीरिक और मानसिक दुःखों से कसा जाता है - पीडित किया जाता है, वह संसार 'कष' है और उसके 'आय' अर्थात् आगमन के जो आभ्यन्तर करण हैं उन्हें, कषाय कहते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय हैं । जिस मन वचन और काय के व्यापार के द्वारा, ना कर्म से योग द्रव्य से या वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न वीर्य पर्याय के द्वारा जो युक्त किया जाय, वह योग है । इनमें से मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है-अभिगृहीत और अनभिगृहीत | संदिग्ध अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन का भेद है । मतिज्ञान आदि किसी भी विषय को दृष्टि में रख कर असम्यगदर्शन को स्वीकार करना, जैसे 'यही सत्य है' यह अभिगृहीत मिथ्यादर्शन कहलाता है । उससे
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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