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________________ ३५४ तत्वार्थस्त्रे त्रयोदशविधाः सन्ति आहारककाययोग- आहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयतवर्तिनो भेदेन पुनः पञ्चदशविधाः भवन्ति । ___ एते मिथ्यादर्शनादयः पञ्च समस्ता-व्यस्ताश्च बन्धहेत्वो भवन्ति । तत्र-मिथ्यादर्शिनः पञ्चापि समुदिता बन्धहेतवः, सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टीनामविरतिप्रमादकषाययोगाश्चत्वारो बन्धहेतवो भवन्ति । संयतासंयतस्य-विरति-मिश्रा-ऽविरतिः, प्रमाद-कषाययोगाश्च बन्धहेतवः । अप्रमत्तादीनां चतुर्णी-योगकषायौ बन्धहेतू । उपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगिकेवलिनामेक एव योगो बन्धहेतुः अयोगिकेवलिनो न बन्धहेतुर्भवति कश्चिदिति भावः ॥३॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रे कर्मभावबन्धः प्ररूपितः सम्प्रति-बन्धस्य पञ्चहेतून प्ररूपयितुमाह-"बंधहेउणो पंच मिच्छादसणाऽविरइपमायकसायजोगा-" इति । बन्धहेतवः पञ्च, मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा इति, बन्धस्य-कर्मभावबन्धस्य हेतवः सामान्यहेतवो मिथ्यादर्शनादयः पञ्च सन्ति । तत्र--तत्त्वातत्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शनस्य विपरीतं मिथ्यादर्शनं तत्वार्थाश्रद्धानलक्षणं बोध्यम् । अविरतिश्च - अवद्यस्थानेभ्यो निवृत्तिलक्षणा विरतिः विपरीता पापस्थानेभ्योऽनिवृत्तिलक्षणाविरतिविपरीत्यभावरूपा । संयत में आहारककाय योग और आहारकमिश्र काययोग भी होते हैं। इन्हें मिलाने से योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन आदि पूर्वोक्त पाँच मिले हुए भी कर्मबन्ध के कारण होते हैं और पृथक्पृथक् भी कारण होते हैं । मिथ्यादृष्टि में पाँचों मिले हुए कारण होते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्-मिथ्या दृष्टि (मिश्रदृष्टि) असंयतसम्यग्दृष्टि में अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये चार बन्ध कारण पाये जाते हैं । संयतासंयत्त (देशविरत) में विरतिमिश्रित अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कारण होते हैं । संयतासंयत (देशबिरत) में विरति मिश्रित अविरति प्रमाद कषाय और योग कारण होते हैं । प्रमत्तसंयत में प्रमाद, कषाय और योग कारण होते हैं अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानों में योग और कषाय कारण हैं । उपशान्त कषाय, क्षोण कषाय तथा सयोगि केवली में अकेला योग ही बन्ध का कारण होता है । अयोगि केवली में बन्ध का कोई कारण न रहने से बन्ध ही नहीं होता ॥३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में कर्मभावबन्ध का प्ररूपण किया गया है, अब बन्ध के पाँच हेतुओं का निरूपण करने के लिए कहते हैं-बन्ध के पाँच कारण हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। __ कर्मबन्ध के इन सामान्य कारणों में पहला मिथ्यादर्शन हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन से विपरीत तत्त्वार्थ का अश्रद्धान मिथ्यादर्शन कहलाता है। पापस्थानों से निवृत्ति को विरति कहते हैं, उससे जो विपरीत है अर्थात् पापस्थानोंसे निवृत्त न होता है, उसे अविरति कहते हैं । इन्द्रियों
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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