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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३. सू०३ बन्धस्य हेतुस्वरूपनिरूपणम् ३५३ लोभाः,अनन्तसंसारानुबन्धिनः-४ योगाः पुनर्मनो-वाक्कायव्यापारलक्षणाः-५ एते पञ्च तावद्बन्धस्य कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धानाम् आत्मप्रदेशानाञ्च परस्परानुगमनलक्षणस्य हेतवो भवन्ति । एते खलु पञ्च सर्वकर्मबन्धस्य सामान्यहेतवोऽवसेयाः । - ज्ञानावरणादेस्तु-विशेषहेतवोऽग्रे वक्ष्यन्ते । तत्र-मिथ्यादर्शनं तावद् द्विविधम् नैसर्गिकम्-परोपदेशनिमित्तञ्च । तत्र परोपदेशं विनैव मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यत् तत्वार्थाश्रद्धानलक्षणः मिश्यादर्शनं प्रादुर्भवति, तन्नैसर्गिकमुच्यते। परोपदेशनिमित्तकञ्च-मिथ्यादर्शनं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् क्रियावाद्यक्रियावाद्यज्ञानिवैनयिकभेदात् । यद्वा-मिथ्यादर्शनं पञ्चविधम् एकान्तमिथ्यादर्शनम्-१ विपरीतमिथ्यादर्शनम्-२ संशयमिथ्यादर्शनम्-३ वैनयिकमिथ्यादर्शनम्-४ अज्ञानमिथ्यादर्शनं-५ चेति । १ अविरतिस्तु-द्वादशविधा भवति,षट्काय-षट्करणविषयविकल्पात्-२ प्रमादः खलु बहुविधः प्रज्ञप्तः, पञ्चसमिति–त्रिगुप्ति-शुद्धयष्टकोत्तमक्षमादिविषयभेदात्-३ कषायाःपुनः-षोडशकषाय-नवनोकषायभेदेन पञ्चविंशतिविधाः-४ योगस्तु-चतुर्मनोयोग-४ चतुर्वाग्योग-४ पञ्चकाययोग-५भेदेन ४–कषाय-अनन्त संसार की परम्परा को भमाने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ को कषाय कहते हैं। ५-योग-मन, वचन और काय का व्यापार योग है। _ये पाँचों कर्मवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों और आत्मप्रदेशों के परस्पर सम्बन्ध रूप बन्ध के कारण हैं । ये पाँचों समस्त कर्मों के बन्ध के सामान्य कारण समझना चाहिए। ज्ञानावरण आदि के बन्ध के बिशेष हेतु आगे कहेंगे। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है –नैसर्गिक और परोपदेशनिमित्त जो मिथ्यादर्शन परोपदेश के बिना ही मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हो जाता है, वह नैसर्गिक कहलाता है। पगेपदेश से उत्पन्न होने वाला मिथ्यादर्शन चार प्रकार का कहा गया है-(१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) अज्ञानिक और (४) वैनयिक ।। - अथवा मिथ्यादर्शन पाँच प्रकार का है-(१) एकान्त मिथ्यादर्शन (२) विपरीत मिथ्यादर्शन (३) संशय मिथ्यादर्शन (४) वैनयिक मिथ्यादर्श (५) अज्ञानमिथ्यादर्शन । अविरति वारह प्रकार की है -षट् काय और षट् इन्द्रीयों के विषय । अर्थात्छह कायों के जीवों की हिंसा से निवृत होना और मनसहित छहों इन्द्रियों के विषय में रागद्वेष धारण करना। प्रमाद बहुत प्रकार का कहा गया है, पाँच समीतियो में प्रमाद करना, तीन गुप्तियों में प्रमाद करना, शुद्धयष्टक में सावधान न रहना, उत्तम क्षमा आदि दश प्रकार के धर्मों में प्रमाद करना आदि । सोलह कषाय और नौ नो कषाय मिल कर पचीस कषाय हैं। चार मनोयोग, चार वचन योग, पाँच काययोग, यों तेरह प्रकार के योग हैं आहारकशरीर के धारक प्रमत्त
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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