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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०२ सू.० १८ कालस्य स्वरूपनरूपणम् २५५ इतरकारणकलापसान्निये सत्यपि नोपपद्यते । तथाविधानेकशक्तिशालिकालद्रव्यापेक्षः पुनस्तथाविधऋतुविभागादिपरिणामः समुपपद्यते । तस्मात्तथाविधप्रतिविशिष्टकार्याऽनुमेयः तावत्कालोऽवगन्तव्यः । अन्यथा--कस्यापि नियामकस्य हेतो रसद्भावे युगपदेव एते पूर्वोक्ता भावाः पराधीनत्वाभावेन सम्भवेयु अतोऽमीषा परिणामानां प्रतिनियतकालभावित्वात् समस्तितावद् अनेकशक्तिक. लापयुक्तं कालरूपमेकं कारणम्, ताश्च कालनिष्ठाः शक्तयः कदाचिदेव समासादिपरिपाकाः स्वकार्यनिष्पादनाय प्रबर्तन्ते न सर्वदेतिभावः । क्रियागतिस्त्रिधा भवति, प्रयोगगतिः-विनसागतिः-मिश्रिकाचेति । तत्र प्रयोगगतिः जीवपरिणामप्रयुक्ता शरीराहारवर्णगन्धसरर्शसंस्थानविषया भवति, विस्रसागतिस्तु---प्रयोगं विना केवलं जीवभिन्नद्रव्यपरिणामरूपा पर नाण्वभेन्द्रधनुःपरिवेषादिरूपा विचित्रसंस्थाना भवति. मिश्रिकागतिःपुनः-प्रयोग विस्रसाभ्यामुभयपरिणामरूपत्वाद् जीवप्रयोगसहचरिताऽऽचेतनपरिणामात् कुम्भस्तम्भादिविषया भवति. । कुम्भादयस्तु-तावत् तेन परिणामेन स्वत एवोत्पत्तुं शक्ताः कुम्भकारसान्निध्यात् तादृशाः सञ्जायन्ते । परत्वापरत्वे च त्रिविधे स्तः, प्रशंसाकृते---क्षेत्रकृते-कालकृते च भवतः । तत्र प्रशंसाकृते परत्वापरत्वे यथापरो धर्मः परं ज्ञानम् अपरोऽधर्मः, अपरमज्ञानम् , इत्यादि । सम्पन्न कालद्रव्य के कारण ही पूर्वोक्त ऋतुविभाग आदि परिणाम उत्पन्न होता है। अतएव इन सब कार्यों से कालद्रव्य का अनुमान किया जा सकता है । अन्यथा किसी भी नियामक हेतु के अभावमें एक ही साथ पूर्वोक्त सब भाव हो जाने चाहिए क्योंकि वे पराधीन न होंगे। मगर ऐसा होता नहीं ये सभी परिणाम अपने नियत काल में ही होते हैं अतएव अनेक शक्तिसमूहों से युक्त काल ही इनका कारण है। काल में रही हुई शक्तियां कभी-कभी ही परिपाक को प्राप्त होकर अपना कार्य करने के लिए प्रवृत्त होती हैं, सर्वदा नहीं । क्रियागति तीन प्रकार की है-प्रयोगगति, विस्रसागति और मिश्रगति । जीव के परिणाम से शरीर आहार वर्ण गन्ध रस स्पर्श और संस्थान विषयक गति प्रयोगगति कहलाती है । वित्रसागति प्रयोग के विना ही होती है और वह जीव से भिन्न द्रव्यों का परिणमन है। परमाणु इन्द्रधनुष मेधपरिवेष आदि उसके विविध आकार प्रकार होते है । मिश्रगति प्रयोग और स्वभाव दोनों से होती है । वह जीव के प्रयोग के साथ अचेतन के परिणाम से कुम्भ स्तंभ आदि में उत्पन्न होती है । कुम्भ आदि उस उस रूप में स्वयं ही उत्पन्न होने में समर्थ होते हुए कुम्भकार के सान्निध्य से उस रूप में परिणित हो जाते हैं। परत्व और अपरत्व तीन प्रकार के हैं—प्रशंसाकृत क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रशंसाकृत जैसे-धर्म पर अर्थात् श्रेष्ठ है, ज्ञान पर 'श्रेष्ठ' है और अज्ञान अपर है इत्यादि । एक ही दिशा और एक ही काल में स्थित दो पदार्थों में से जो दूर होता है, वह पर कहलाता है और जो सन्निकट होता है, वह अपर कहलाता है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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