SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ तत्त्वार्थसूत्रे “वर्षासु च-लपलावलयविद्योतितकदम्बिनीघटाटोपस्थगिताम्बरमारचितेन्द्रचापलेखं मुसलधारासारप्रपातोपशमितधूलिजालं धरातलं विभाति, कदम्बकोरककेतकीरजः परागपरिमलशालिन सुरभयः समीरणाः विलासिनामङ्गानि समीरयन्ति, वर्षाजलप्रवाहपूरकलितकूलाः सरितः प्रवहन्ति, विकसत्कुटजपुष्पकन्दलीशिलीन्ध्रालङ्कताः पर्वतोपत्यका भान्ति, धनधोरघटाटोपध्वनिश्रवणोपजाततीवोत्कण्ठाः सन्तः प्रवासिनो जनाः परिभूषितमनीषा इव संलक्ष्यन्ते मयूरमण्डलचातकमण्डूकध्वनिश्रवणोद्दीपितविषमबाणविषवेगमोहिताः महिलाजनाः क्षणं क्षणद्युतिविद्यत्प्रदीपप्रकाशितासु क्षणदासु अभिसरन्ति नायकमन्दिरम् । पन्थानस्तावत्-पकबहुलाः कचिज्जलाकुला दरीदृश्यन्ते-५ शरदि च-रविकिरणाः पङ्क शोषयन्त स्तीबसन्तापं धारयन्ति, विकसितकमल-कुमुदवनानि हंससारसयुतानि सरांसि स्फटिकमणिभित्तिधवलजालपूर्णानि भवन्ति, वेलानियमप्राप्तपाटवानिकमलकोशाजालानि प्रातः सूर्यकिरणसम्पर्कात् विकसन्ति, कुमुदिनीनाथकिरणकलापस्पृष्टानि च कुमुदकुवलयवनानि सूरभिपरिमलं वयन्ति -- दलन्ति च,-----६ इत्येवं रीत्या षड्ऋतुविभागो वेलानियमश्च विलक्षणपरिणामो नियामकं कारणं कालं विना वर्षा ऋतु में भूतल विजली की चमक से प्रकाशित हो जाता है । मेधमाला के आडम्वर से आकाश आच्छादित हो जाता है। इन्द्रधनुष अपनी अनुपम छटा दिखलाती है । मूसलधार व रिवर्षा से धरा की समस्त धूल उपशान्त हो जाती है । कदम्ब, कोरक एवं केतकी की सौरभमय पराग से युक्त सुगंधित वायु विलासी जनों के अंगों को प्रकम्पित करने लगती है । वर्षा के जल के प्रवाह के कारण सुन्दर तट वाली नदियाँ प्रवाहित होती हैं । पर्वतों की उपत्यकाएँ खिले हुए कुटज पुष्पों से तथा शिलीन्ध्रों से सुशोभित हो उठती हैं। मेघों की घोर धटा की गर्जना सुनकर प्रवासी जनों के चित्त में तीव्र उत्कंठा जागृत हो जाती है । वे ठगे-से रह जाते हैं । मयूरों, चासकों एवं मण्डूकों की ध्वनि को सुनने से महिला जनों के मन में काम उद्दीप्त हो जाता है, और वे क्षणभर के लिए विद्यत् रूपी प्रदीप के द्वारा प्रकाशित रात्रि में अपने प्रेमी जनों के धर की ओर अभिसार करने लगती हैं । मार्गे कीचड़ की बहुलता वाले और कहीं-कहीं जल से युक्त दिखाई देते है। शरद् ऋतु में सूय की किरणें कोचड़ को सोखती हुई तीव्र सन्ताप को धारण करती हैं । वनों में कमल और कुमुद विकसित हो उठते हैं । सरोवर हंसों और सारसों से सुशोभित तथा स्फटिक मणि की भीत के समान धवल जल से परिपूर्ण होते हैं । वेला के नियम से प्राप्त पटुता वाले कमलों के कोशजाल प्रातः काल सूर्य की किरणों का सम्पर्क पाकर विकसित होते हैं । चन्द्रमा की किरणों के समूह से स्पृष्ट कुमुदों और कुवलयों के वन सौरभ का वमन करते हैं। ___इस प्रकार छह ऋतुओं का विभाग और वेला का नियम नियामक कारण काल के विना, अन्य कारणों के होने पर भी घटित नहीं हो सकता । अनेक प्रकार की शक्तियों से
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy