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________________ तत्वार्थ सूत्रे क्षेत्रकृते परत्वापरत्वे च यथा एकदिकालावस्थितयोर्द्वयोर्भावपदार्थयोर्विप्रकृष्टे परत्वव्यवहारो भवति, सन्निकृष्टे चाऽपरत्वव्यवहारो जायते । कालकृते परापरत्वे यथा – षोडशवर्षायुषः परो वर्षशतिको भवति वर्षशतिकादपरः षोडशवर्षायु र्भवति । तत्र - प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वापरत्वे वर्जयित्वा तदितराणि सर्वाणि वर्तनापरिणाम क्रियापरत्वापरत्वानि कालकृतानि भवन्ति तानि वर्तनादीनि प्रति कालस्यैवाऽपेक्षाकारणत्वात् कालद्रव्यं सिध्यति ||१८|| मूलसूत्रम् — 'पोग्गलेसु वण्णगंधर छाया पुद्गलेषु वर्णगन्धरसस्पर्शाः -- ॥१९॥ तत्वार्थदीपिका - पूर्वं धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवानामुपकारादिकार्यप्रदर्शनद्वारासामान्यतः स्वरूपं निरूपितम् सम्प्रति- विशेषतः पुद्गलादीनां स्वरूपं निरूपितुमाह- 'पोग्गलेसु' इत्यादि । पुलेषु - पूरणाद् गलनाच्च पुद्गगला व्यपदिश्यन्ते तेषु वर्णगन्धरसस्पर्शा भवन्ति ते च पुद्गलाः परमाणुप्रभृति महास्कन्धपर्यन्ताः सन्ति । तथाच-कृष्णनीलादिवर्णः सुरभ्यसुरभिगन्धः तिक्ताऽम्लमधुरादिरसः, मृदुकर्कशादिस्पर्शश्च पुद्गलानां विशेषलक्षणमवगन्तव्यम् । तथाच - वर्णवत्वं गन्धवत्वं रसवत्वं, स्पर्शवत्वं पुद्गलस्य लक्षणम् ।।१९।। . २५६ " ॥१९॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः --- पुद्गलविषये बहवस्तावत्परतीर्थिकाः विप्रतिपद्यन्ते, तत्र - केचन सौत्रान्तिकाः पुद्गलपदेन जीवमभ्युपगच्छन्ति पुनः पुनर्गत्यादानात् - जीवः पुद्गल इत्युच्यते योगाचारा कालकृत परत्व और अपरत्व ज्येष्ठता और कनिष्ठता है । जैसे सौ वर्ष वाले की अपेक्षा पर कहलाता है और सौ वर्ष वाले की अपेक्षा सोलह वर्ष वाला अपर से प्रशंसाकृत और क्षेत्रकृत परत्व - अपरत्व को छोड़ कर उनके सिवाय क्रिया परत्व और अपरत्व कालकृत हैं क्योंकि काल उन सब में अपेक्षा कालद्रव्य की सिद्धि होती है ॥१८॥ कहलाता है । इनमें सब वर्त्तना परिणाम कारण है । उनसे मूलसूत्रार्थ - 'पोग्गले सुवण' इत्यादि सूत्र ॥ १९ ॥ पुद्गलों में वर्ण गंध रस और स्पर्श होता है ॥ १९॥ तत्वार्थदीपिका - पहले धर्म अधर्म आकाश, पुद्गल और जीवों का उपकार आदि दिखलाकर सामान्य रूप से स्वरूपनिरूपण किया गया है, अब विशेष रूप से पुद्गल आदि का स्वरूप निरूपण करने के लिये कहते हैं जिसमें पूरण और गलन अर्थात् मिलना और विछुडना होता है, वह पुद्गल कहलाता है । पुत्गल में वर्ण गंध, रस और स्पर्श पाये जाते है । पुद्गगल परमाणु से लेकर महास्कंध तक होते है । अतएव कृष्ण नील आदि वर्ण, सुरभि और असुरभि गंध तिक्त आम्ल मधुर आदि रस मृदु कर्कश आदि स्पर्श पुद्गलों का विशेष लक्षण जानना चाहिये । इस रस और स्पर्शवान् हो वह पुद्गल है ||१९|| प्रकार जो वर्ण गंध तत्वार्थदीपिका - पुद्गल के विषय में अन्यतीर्थिकों की विविध प्रकार की विरोधी मान्यताएँ हैं । जैसे सौत्रान्तिक पुद्गल शब्द का अर्थ जीव कहते हैं क्योंकि वह पुनः पुनः
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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