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________________ दीपिकानियुक्तश्च अ. २ सू० ६ धर्माधर्मादीनां प्रदेशत्वनिरूपणम् १९७ मूलसूत्रम् -- "धम्माधम्मलोगागासैगजीवाणमसंखेज्जा पएसा-" ॥६॥ छाया-"धर्माऽधर्मलोकाकाशैकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशाः-" ॥६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व धर्मादिद्रव्याणां प्ररूपितत्वात् । सम्प्रति अधिकृतधर्मादिद्रव्याणां सर्वेषामेव क्रमशः प्रदेशावयवे यत्तामाविष्कर्तुमाह-"धम्माधम्मे" त्यादि । धर्मस्या-ऽधर्मस्य लोकाकाशस्य एकजीवस्य चाऽसंख्येयाः प्रदेशाः प्रत्येकं भवन्तीत्यर्थः ॥६॥ तत्वार्थनियुक्ति:-परमाणु विहाय सर्वेषां द्रव्याणां मूर्तानाममूर्तानाञ्च प्रदेशा भवन्ति । अवयवास्तु-स्कन्धानामेव भवन्ति । संव्यवहारार्थ प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशाः, प्रकृष्टो वा देशः । प्रदेशः, अवयूयमानाः प्रथक्रियमाणाः सम्बध्यमाना वा अवयवाः । तथाचा-ऽमूर्तेषु धर्माधर्माकाशकालजीवेषु अवयकव्यवहारो न भवति, एवं मूर्तेष्वपि अन्त्यभेदावस्थेषु परमाणुषु अवयवव्यवहारो न जायते, मूर्तेष्वेव परमाणुभिन्नपुद्गलेषु अवयवव्यवहारो भवति । प्रदेशव्यवहारस्तु-परमाणुं विहाय सर्वेष्वेव द्रव्येषु भवति । तत्रधर्माधर्माकाशकालजीवानां द्रव्यपरमाणू मूर्ति व्यवच्छिन्नाः प्रदेशा भवन्ति । पुद्गलद्रव्यस्य तु निरंशो द्रव्यात्मना भागः प्रदेश इत्युच्यते, न तु-तस्य कश्चिदन्यः प्रदेशोऽस्ति, तथाच ये न कदाचिद् वस्तुव्यतिरेकेणोपलभ्यन्ते ते प्रदेशा उच्यन्ते, ये पुनर्विशकलिताः सन्तः मूलसूत्रार्थ 'धम्माधम्मलोगागास' इत्यादि--सूत्र-॥६॥ धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते हैं ॥६॥ तत्त्वार्थदीपिका--पहले धर्म आदि द्रव्यों का प्ररूपण किया गया है, अब उनके प्रदेशों की संख्या बतलाने के लिए कहते हैं धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव में से, प्रत्येक के असंख्यात प्रदेश होते हैं ॥६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-परमाणु को छोड़ कर शेष सब मूर्त और अमूर्त द्रव्यों के प्रदेश होते हैं । अवयव स्कंधों में ही होते हैं। व्यवहार के लिए जो कल्पित किये जाते हैं, वे प्रदेश हैं । अथवा प्रकृष्ट देश को अर्थात् किसी स्कंध के सबसे छोटे अवयव को, जिस से छोटा कोई अवयव न हो सके, प्रदेश कहते हैं । जो पृथक् किये जा सके या सम्बद्ध होते हों, वे अवयव कहलाते हैं । इस कारण अमूर्त धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव द्रव्य में अवयवों का व्यवहार नहीं होता । इसी प्रकार अन्य परमाणुओं में भी अवयवों का व्यवहार नहीं होता है । परमाणु के सिवाय मूर्त पुद्गलों में ही अवयव का व्यवहार होता है । प्रदेशों का व्यवहार परमाणु को छोड़कर सभी द्रव्यों में होता है। तात्पर्य यह होता है कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव द्रव्यों के परमाणुमूर्ति ब्यवच्छिन्न प्रदेश होते हैं। पुद्गल द्रव्य का निरंश द्रव्यरूप भाग प्रदेश कहलाता है, उसका कोई अन्य प्रदेश नहीं होता है। अतः जो कभी भी वस्तु से भिन्न उपलब्ध नहीं होते, वे प्रदेश कहलाते हैं और जो अलहदा होकर पृथक् प्रतीत होते हैं, उन्हें अवयव
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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