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________________ दीपिकानियुक्तिश्च ०२ सू०५ कालद्रव्यस्यानेकत्वनिरूपणम् १९५ णामुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयकल्पनाव्याघातो भवेदिति चेत् ? अत्रोच्यते-धर्मादिद्रव्यत्रयाणां क्रियानिमिलोत्पादाभाबे तदन्यरीत्यैवोत्पादः कल्प्यते । तथाहि-उत्पादो द्विविधः प्रज्ञप्तः, स्वनिमित्त:-परनिमित्तश्च । तत्र-स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रमाण्यादभ्युपगम्यमानानां षस्थानपतितया वृद्धया-हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेवेंतेषामुत्पादो व्ययश्च भवतः ।। एवं परनिमित्तोऽप्युत्पादः, अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात् प्रतिक्षणं तेषां भेदात्तद्धेतुस्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो व्ययश्च अपदिश्यते । अथापि धर्मादिद्रव्यत्रयाणां निष्क्रियत्वे सति जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यादिहेतुत्वदर्शनात् इति चेन्मैवम् धर्मादीनां चक्षुर्बत् बलाधाननिमित्तत्वान्न दोषो भवति, एतावता धर्मादीनि त्रिणि द्रव्याणि गतिस्थित्यवगाहपरिणतानां जीवपुद्गलानां बलाधानं कुर्वन्ति, न तु स्वयमेव प्रेरयन्ति, इति फलितम् । घट आदि में जो उत्पाद. देखा जाता है, वह क्रियापूर्वक ही होता है । उत्पाद के अभाव में व्यय भी नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में सभी द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है, यह मान्यता खंडित हो जाती है। __समाधान-धर्म आदि तीन द्रव्यों में घट के समान क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं होता । वहाँ दूसरी रीति से ही उत्पाद की कल्पना की गई है। उत्पाद दो प्रकार का है-स्वनिमित्तक और परनिमित्तक । अनन्त अगुरुलघु गुणों का, जो आगम की प्रमाणता के आधार पर विचार किये जाते हैं और जो षट्रस्थानपतित वृद्धि और हानि से प्रवृत्त होते हैं, स्वभाव से ही उत्पाद और ब्यय होता है । इसे स्वनिमित्तक उत्पाद कहते हैं । अश्व आदि की गति स्थिति और अवगाहन में कारण होने से धर्मादि द्रव्यों में क्षण-क्षण में भेद होता रहता है । अर्थात् धर्म द्रव्य कभी अश्व की, कभी मनुष्य की और कभी किसी पुद्गल की गति में सहायक होता है। इसी प्रकार अधर्मद्रव्य उनकी स्थिति में सहायक होता है । जब एक जगह से घट हटा कर दूसरी जगह रख दिया जाता तो पहले के आकाशप्रदेशों से उसका विभाग और दूसरी जगह के आकाशप्रदेशों के साथ संयोग होता है। यह संयोग-विभाग की उत्पत्ति एवं विनाश ही आकाश का उत्पाद-बिनाश है। यह परनिमित्तक उत्पाद-विनाश कहलाता है। धर्मादि द्रव्य यदि निष्क्रिय हैं तो वे जीवों और पुद्गलों की गति आदि में कारण कैसे हो सकते हैं ? यह कहना ठीक नहीं; धर्मादि द्रव्य नेत्र के समान केवल सहायक ही होते हैं. अतएव यह दोष नहीं है । तात्पर्य यह है कि धर्म द्रव्य स्वयं गति में परिणत जीव-पुद्गलों की गति में, अधर्मद्रव्य स्वयं स्थिति में परिणत जीव-पुद्गलों की स्थिति में और आकाश स्वयं आकाशरूप परिणत अन्य द्रव्यों की अवगाहन में सहायक होते हैं । गति आदि की प्रेरणा करना उनका स्वभाव नहीं है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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