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________________ तत्याने न धर्मादित्रयाणां द्रव्याणां सम्भवति तानि खलु धर्माधर्माकाशानि अनासादिताऽतिशथान्येव सदा पूर्वापरावस्थाभेदमनाजिहानान्येव संलक्ष्यन्ते । एवश्च-पुद्गलजीववर्त्तिन्या देशान्तरप्राप्तिलक्षणा या विशेषक्रियाया एव धर्मादित्रिकेषु प्रतिषेधः क्रियते, न तूत्पादव्ययध्रौव्यधर्मात्मव्यवस्थानातिकामति इति धर्मादयोऽपि यदि सत्तां नोल्लङ्घयन्ति, तदा-जीवादीनामिव उत्पादविगमलक्षणया क्रियया भवितव्यमेषामपि । अतएव-द्रव्यत्वान्मुतात्मवदुत्पादव्ययस्थितिमत्वमनुमियतेऽनुमातारः । एवञ्च-आकाशस्यावगाहः स्वलक्षणमुफ्कारः स चावगाढारं जीवादिकं विना नाभिव्यज्यते इत्यवगाढजीवादिसंयोगमात्रमवगाहः । संयोगश्चो-त्पादशालिनी संयुज्यमानवस्तुजन्यत्वाद् द्वयङ्गुलसंयोगवत् यथैवावगाहआकाशस्य, तथैव गतिस्थित्युपकारावपि धर्माधर्मयोर्मतिमदादिद्रव्यसंयोगमात्रत्वादुत्पादादिस्वभावौ वर्तेते इत्यादिप्रश्नः समाहितो भवति । जीवादिगतदेशान्तरप्राप्तिलक्षणविशेषक्रियाया एव धर्मादित्रिके निषेधेन उत्पादादिसामान्यक्रियायास्तत्र सत्वेऽपि दोषाभावादिति प्रकृतसूत्राशयः । .. अथ धर्मादीनि त्रिणि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि भवन्ति, तदा तेषामुत्पादो न संघटते, घटादीनां क्रियापूर्वकस्यैवोत्पादस्थ दृष्टत्वात् उत्पादाभावे च व्ययोऽपि न स्यात् तथाच-सर्वद्रव्या __ इस प्रकार पुद्गल और जीव में होने वाली देशान्तरप्राप्ति रूप जो विशेष क्रिया है, उसी का धर्म आदि तीन द्रव्यों में निषेध किया गया है । ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि इनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप क्रिया भी नहीं है । जब इनमें सत्ता हैं तो उत्पाद और व्यय का होना भी अनिवार्य है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के विना कोई भी वस्तु सत् नहीं हो सकती । अतएव द्रव्य होने के कारण जैसे मुक्तात्माओं में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य माना जाता है, उसी प्रकार धर्म आदि द्रव्यों में भी माना जाता है। इस प्रकार अवगाह देना आकाश का लक्षण है और वही उसका उपकार है। वह उपकार अवगाह्य जीव आदि के बिना अभिव्यक्त नहीं होता, अतः अवगाढ़ जीवादि का संयोग मात्र ही अवगाह है । संयोग, उत्पन्न होने वाली दो वस्तुओं में होता है, जैसे दो अंगुलों का संयोग । इस प्रकार जैसे अवगाह देना आकाश का उपकार है, वैसे ही धर्म और अधर्म का उपकार गति और स्थिति में सहायक होना है । वह भी गतिमान् और स्थितिमान् द्रव्यों का संयोगमात्र ही है । इस कारण धर्म और अधर्म द्रव्य भी उत्पाद, व्यय आदि स्वभाव वाले हैं । इत्यादि प्रश्न का समाधान हो जाता है । इस सूत्र का आशय यह है कि जैसे जीव और पुद्गल में एक जगह से दूसरि जगह जाने की विशेष क्रिया होती है, वैसी क्रिया धर्म आदि तीन द्रव्यों में नहीं होती है। किन्तु उत्पाद आदि सामान्य क्रिया उनमें मानने में कोई भी दोष नहीं है । शंका-यदि धर्म आदि तीन द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनमें उत्पाद नहीं घटित होता, क्योंकि
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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