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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू ५ कालद्रव्यस्यानेकत्वनिरूपणम् १९३ पगम्यते प्रकृतसूत्रे एकशब्दस्याऽसहायार्थकस्याग्रहणेन यथा परमाणुपुद्गलदव्यं परमाण्वन्तरेण सद्वितीयं भवति । आत्माच—ज्ञानसुखदुःखजीवनादि भेदभाजा-आत्मान्तरेण सद्वितीगो भवति कालश्चाद्धा समयावलिकादिभेदशालिना कालान्तरेण सद्वितीयो भवति, न तथा धर्मद्रव्यं धर्मद्रव्यान्तरेण ससहायं भवति न वा-अधर्मद्रव्यम् अधर्मद्रव्यान्तरेण ससहायं भवति नापि--आकाशः आकाशान्तरेण ससहायो भवति तथाच-एक द्रव्याण्येण धर्मादीनि त्रीणि द्रव्याणि भवन्ति नाऽनेकद्रव्याणि । तेषां त्रयाणां तुल्यजातीयद्रव्याभावात् कालपुद्गलजीवद्रव्याणि पुनरनेकद्रव्याणि भवन्ति, तत्र कालद्रव्यम् अद्धासमयावलिका निमेषक्षणलवादिरूपेणाऽनेकद्रव्यं भवति एवं पुद्गलद्रव्यञ्च-- परमाणुप्रभृति अनन्ताणुकस्कन्धावसानं बहुद्रव्यं भवति जीवद्रव्यञ्च-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वि-त्रि-चतुष्पञ्चेन्द्रियात्मभेदेन नानाद्रव्यरूपं भवति । ___एवं धर्मादीनि-आकाशान्तानि त्रीणि द्रव्याणि अक्रियाणि- निष्क्रियाणि क्रियारहितानि भवन्ति । तथाहि . क्रियापरिणामशक्तियुक्तं द्रव्यमभ्यन्तरनिमित्तम् प्रेरणादिकं बाह्यनिमित्तं भवति, एतदुभयनिमित्तवशादुपजायमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रियोच्यते । सा च क्रिया के अनुसार धर्म आदि द्रव्यों के गांत, स्थिति और अवगाहयान उपकार है गति आदि तीनों से युक्त वस्तु अर्थक्रिया करने में समर्थ होती है, ऐसा अनेकान्तवादी स्वीकार करते हैं । प्रकृत सूत्र में 'एक' शब्द असहायक अर्थ में ग्रहण किया गया है । अतएव जैसे परमाणु रूप पुद्गलद्रव्य दूसरे परमाणु से सद्वितीय है अर्थात् एक परमाणु दूसरे पमाणु से भिन्न स्वतंत्र असंपृक्त अस्तित्व रखता है, और जैसे एक आत्मा दूसरे आत्मा से भिन्न अस्तित्व वाला है और उन सबके चैतन्य, सुख, दुःख आदि गुण पर्याय भिन्न-भिन्न हैं और जैसे कालदव्य का कालान्तर से भेद है, वैसा भेद धर्म आदि द्रव्यों में नहीं है । एक धर्मद्रव्य से भिन्न दूसरे धर्मद्रव्य की पृथक् सत्ता नहीं है अधर्मद्रव्य भी परस्पर भिन्न दो या बहुत नहीं है । आकाश भी व्यक्तिशः अनेक नहीं है । इस कारण धर्म आदि तीन द्रव्यों को एकएक कहा गया है। कालपुद्गल और जीव अनेक द्रव्य है कालद्रव्य समय आवलिका, निमेष. क्षण लव आदि रूप से अनेक द्रव्य है पुद्गल भी अनेक द्रव्य है, क्योंकि परमाणुओं तथा द्वयणुकों से लेकर अनन्तानन्ताणुक स्कंधों की सत्ता स्वतंत्र है । पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि जीवों की अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसी प्रकार धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य अक्रिय अर्थात् गमन रूप क्रिया से रहित है । क्रियारूप परिणमन से युक्त द्रव्य आभ्यन्तर कारण है और प्रेरणा आदि बाह्य कारण है। इन दोनों कारणों से द्रव्य की देशान्तर प्राप्ति (एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाना) रूप पर्याय क्रिया कहलाती है । यह क्रिया धर्म आदि तीन द्रव्यों में नहीं हो सकती । २५
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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