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________________ तत्वार्थ न्तीति भावः । तैजसं शरीरं पुनस्तेजोविकाररूपं तेजः स्वतत्त्वं शापानुग्रहप्रयोजनं भवति । तस्य नाऽत्राधिकारः । उष्णतालक्षणं तेजः सर्वशरीरेषु अन्नस्य पाचकं जठराग्निरूपं संसिद्धम् । एवंविधस्य तेजसो विकारस्तैजसमवस्थान्तरापत्तिरिति । __कार्मणं शरीरन्तु-कर्मणो विकाररूपं ज्ञानावरणादिकर्मणो विकृतिः कर्ममयं-कर्मात्मकं भवति । नैव मौदारिकादीनि भवन्ति । एतेभ्य एवोदाराधर्थविशेषेभ्य उक्तलक्षणेभ्यो विभिन्नस्वरूपेभ्यः शरीराणां घट-पटादिवत् लक्षणभेदात् नानास्वं सिद्धम् । न केवलमुक्तावाख्यानद्वारेणैव औदारिकादीनां शरीराणां परस्परं मेदो भवति । अपितु-निम्नकारणतोऽपि भेदो भवति । तत्र-कारणतस्तावत् स्थूलपुद्गलोपचितमूर्तिरूपमौदारिक भवति । नैवं वैक्रियादीनि, उत्तरोत्तरस्य सूक्ष्मत्वात् , एवं विषयकृतोऽपि तेषां परस्परं भेदो भवति । तथाहि-विद्याधरौदारिकशरीराणि प्रत्यानन्दीश्वराद् औदारिकस्य विषयः जछाचारणं प्रत्यारुचकपर्वतात् तिर्यक् उर्ध्वमापाण्डकवनात् । वैक्रिय शरीरमसंख्येयद्वीप-समुद्रविषयम् , आहारकं महाविदेहक्षेत्रपर्यन्तविषयम् । तैजसकार्मणे सर्वलोकपर्यन्तविषये भवतः । एवं स्वामिकृतोऽपि तेषां मेदो भवति । तथाहि-औदारि तैजस शरीर तेज का विकार रूप' तेजोमय, तेजःस्वभाव होता है । उसका प्रयोजन शाप और अनुग्रह करना है । यहाँ उसका अधिकार नहीं है। तेज का लक्षण उष्णता है । वह समस्त शरीरों में अन्न को पचानेवाला, जठराग्नि के रूप में प्रसिद्ध है। यह तैजस शरीर आहारक से भिन्न है। . कार्मण शरीर कर्म का विकार, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विकृति, कर्ममय या कर्मात्मक होता है । औदारिक आदि शरीर ऐसे नहीं होते । जैसे उदारता-स्थूलता-औदारिक शरीर का लक्षण हैं, उसी प्रकार इन पांचों शरीर के लक्षण अलग-अलग हैं । लक्षण अलग-अलग होने से इनमें भिन्नता होती है, जैसे घट और पट में भिन्नता है। हाँ, उक्तव्युत्पत्ति के मेद से ही औदारिक आदि शरीरों में भेद नहीं है, अपितु निम्नलिखित कारणों से भी उनमें भेद सिद्ध होता है। सर्व प्रथम औदारिक आदि शरीरों के कारण भिन्न-भिन्न हैं। औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से बनता है वैक्रिय आदि शरीर ऐसे नहीं; वे उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं, क्योंकि उनका निर्माण जिन पुद्गलों से होता हैं, वे उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं। विषय अर्थात् गतिक्षेत्र की अपेक्षा से भी शरीरों में भेद हैं । विद्याधरों के औदारिक शरीर नन्दीश्वर द्वीप तक ही जा सकते हैं । जंघाचरण मुनि तिर्छ रुचकपर्वत तक और ऊपर पाण्डुक वन तक जा सकते हैं । वैक्रिय शरीर का विषय असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, अर्थात् वैक्रिय शरीरधारी असंख्यात द्वीप-समुद्रों तक जा सकता है । आहारक शरीर महाविदेह क्षेत्र पर्यंत जा सकता हैं और तैजस तथा कार्मण शरीर का विषय सम्पूर्ण लोक है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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