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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. ३५ आहारकशरीरनिरूपणम् १४९ कशरीरं मनुष्य-तिरश्चां भवति, वैक्रियं देव-नारकाणां तिर्यङ्-मनुष्याणां च कतिपयानाम् । आहारकं चतुर्दशपूर्वधरमनुष्याणाम् । तैजस-कार्मणे सर्वसंसारिणां भवतः । एवं प्रयोजनकृतोऽपि तेषां विशेषः तथाहि-औदारिकस्य धर्माधर्मसुखदुःखकेवलज्ञानप्राप्त्यादिप्रयोजनम् , वैक्रियस्य स्थूलसूक्ष्मै कत्वगगनचरक्षितिगतिविषयाद्यनेकविभूतिप्राप्तिः प्रयोजनम् । आहारकस्य पुनः सूक्ष्मव्यवहितदुरवगाहार्थव्यवस्थितिः प्रयोजनम् , तैजस्य-आहारपाकः प्रयोजनम् । कार्मणस्य तु-भवान्तरगतिपरिणामः प्रयोजनम् । ___ एवं प्रमाणकृतोऽपि तेषां परस्परं भेदो भवति । तथाहि- औदारिकं तावत् सातिरेक योजनसहस्रम् , वैक्रियं योजनलक्षप्रमाणं भवति । आहारकं रनिप्रमाणम् , तैजस कामेणे लोकायामप्रमाणे भवतः । एवं प्रदेशसंख्यातोऽपि भेदस्तेषां परस्परं भवति, तैजसात् प्राक् औदारिकादिप्रदेशतोऽसंख्येयगुणं भवति, तैजसं-कार्मणं च-अनन्तगुणं भवति । एवमवगाहनतोऽपि विशेषो बोध्यः तथाहि-सातिरेकयोजनसहस्रप्रमाणमौदारिकमसंख्येयगुणप्रदेशेषु यावत्सु अवगाढं भवति, ततो बहुतरासंख्येयप्रदेशावगाढं योजनलक्षप्रमाणं वैक्रियं __स्वामी की अपेक्षा भी शरीरों में भेद है । वह इस प्रकार औदारिक शरीर मनुष्यों और तिर्यंचों को होता है, वैक्रिय देवों और नारकों को होता है और किसी किसी मनुष्य एवं तियेच को हो सकता है । आहारक चौदहपूर्वो के धारक मुनियो को ही होता है । तैजस और कार्मण सब संसारी जीवों को होते हैं। ___प्रयोजन की अपेक्षा भी शरीरों में भेद है-धर्म, अधर्म, सुख, दुःख एवं केवलज्ञान की प्राप्ति आदि औदारिक शरीर का प्रयोजन है । स्थूलता, सूक्ष्मता, एकता, अनेकता, आकाशगमन भूमिगमन आदि अनेक विभूतियों की प्राप्ति वैक्रिय शरीर का प्रयोजन है । सूक्ष्म, गहन, दुर्जेय अर्थ के विषय में समाधान प्राप्त करना आहारक शरीर का प्रयोजन है। आहार को पचाना आदि तैजस शरीर का प्रयोजन है और भवान्तर में गति होना कार्मण शरीर का प्रयोजन है । प्रमाण की अपेक्षा भी शरीरों में भेद है । यथा-औदारिकशरीर का प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजन वैक्रिय का एक लाख योजन, आहारक का एक हाथ और तैजस तथा कार्मण का लोक के बराबर है। प्रदेशों की संख्या की अपेक्षा भी शरीरों में भेद है। यथा-औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक शरीर के प्रदेश असंख्यातगुणित है, । आहारक से तैजस और तैजस से कार्मण शरीर के प्रदेश अनन्तगुणा है। अवगाहना से भी उनमें भेद है, यथा-किंचित् अधिक एक हजार अधिक योजनं प्रमाण वाला औदारिक शरीर लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाढ होता है, एक लाख योजन प्रमाण वाला वैक्रिय शरीर उनकी अपेक्षा अधिक प्रदेशों में अवगाढ होता है । आहारक शरीर
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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