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________________ AAAAAAAAAA दोपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. ३५ अहारकशरीरनिरूपणम् १४७ तदनन्तरं च तदाहारकशरीरं विहाय आत्मप्रदेशजालमुपसंहृत्य पूर्वीदारिकमेवानुप्रविशति । तथाच-"कस्मिंश्चिदर्थे कृच्छेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापन्नो निश्चयाधिगमार्थ क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽर्हतः पादमूलमौदारिकेण शरीरेणाऽशक्यगमनं मत्वा लब्धिप्रत्ययमेव उत्पादयति, पृष्ट्वाऽथभगवन्तं छिन्नसंशयः पुनरागत्य व्युत्सृजति अन्तर्मुहूर्तस्य" इति भाष्यमपि संगच्छते । . उक्तञ्च प्रज्ञापनायां २१ शरीरपदे-आहारगसरीरे णं भंते ? किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिए"-पण्णत्ते-इति । आहारकशरीरं खल्ल भदन्त ! किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम् इति । __तथाचाहारकमाहियते-प्रतिगृह्यते प्रतिविशिष्टप्रयोजनसाधनाय, कार्यपरिसमात्म्यनन्तरं च“याचितमण्डन" न्यायेन पुनर्मुच्यते । संशयव्यवच्छेदार्थाऽवग्रहऋद्धिदर्शनादि च कार्यमवसेयम् । तच्चाहारकमन्तर्मुहूर्तस्थितिकम् । अन्तर्मुहूर्तेनैव कालेनाहरणकर्तुरिष्टप्रयोजनसिद्धिरुपजायते । सिद्धप्रयोजनश्च स पुनस्तदाहारकं शरीरं विमुञ्चति । तस्मात्-नोत्तरकालमपि ता लब्धिमुपजीवति । अन्तर्मुहूर्त स्थितिरात्मलाभो यस्य तदन्तर्मुहूर्तस्थितिकम् । तदन्यानि चौदारिकादीनि वत्साध्यप्रयोजनसम्पादनाय नालं भवन्ति, नाऽपि-नियमतोऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकान्येव तानि भव 'किसी कठिन और अत्यन्त सूक्ष्म अर्थ में सन्देह उत्पन्न होने पर उसका निश्चय-निर्णय करने के लिए दूर देशवर्ती अर्हन्त भगवान् के पादमूल में औदारिक शरीर से जाना अशक्य समझ कर लब्धि निमित्तक शरीर को उत्पन्न करता है । भगवान् से प्रश्न करने पर संशय रहित हो जाता है और फिर लौट कर उस शरीर का त्याग कर देता है । यह सब एक अन्तमुहूर्त में ही हो जाता है ।, भाष्य का यह कथन भी इससे संगत होता है । प्रज्ञापना के २१ एक्कीस वें शरीरपद में कहा है- ... प्रश्न-भगवन् ! आहारक शरीर का संस्थान कैसा होता है ? उत्तर--गौतम ! समचौरस संस्थान होता है । इस प्रकार भावार्थ यह हुआ कि जो शरीर एक विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए उत्पन्न किया जाता है और उस प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर 'माँगे हुए आभूषण' के समान त्याग दिया जाता है, वह आहारक शरीर है । संशय को निवारण करना, अवग्रह (नया ज्ञान सीखना) ऋद्धिदर्शन आदि उसका प्रयोजन है । यह शरीर सिर्फ अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। अन्तर्मुहूर्त काल में ही इष्ट प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है। प्रयोजन सिद्धि हो जानेपर आहारक शरीर का त्याग कर दिया जाता है । तदनन्तर वह. मुनि उस लब्धि का प्रयोग नहीं करता। आहारक शरीर से जिस प्रयोजन की सिद्धि होती हैं, उसे औदारिक आदि अन्य कोई भी शरीर सिद्धि नहीं कर सकते । अन्य शरीर नियम से अन्तर्मुहर्त मात्र की स्थिति वाले ही हों, ऐसा नियम नहीं है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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