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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। अथ पुण्यैः समाकृष्टो भव्यानां निःस्पृहः प्रभुः ॥ देशे देशे तमश्छेत्तुं व्यचरद्भानुमानिव ॥ भाषार्थः-भव्यप्राणियोंके पुण्योंसें खिचा हुआ, निःस्पृह भी भगवान्, देशोदेशमें मिथ्यात्वरूप अंधकारको छेदनेवास्ते, सूर्यकीतरें विचरता भया. ॥८॥ __ तथा जिन, जो अंग न चलावे तो, शुभ विहायगति, और अशुभ विहायगतिका उदय किसतरें होवे ? नही होवे. और जिनके सात योग, कैसे होवे? और जो कल्पनाकुयुक्तिसे कहते हैं कि, देवते तीर्थंकरको उठाते, विठलाते हैं, और चलाते हैं; सो कहना महा मिथ्या है. क्योंकि, प्राचीन दिगंबरमतके शास्त्रोंमें, ऐसा लेख किसी जगेमें नही है. तो फिर, केवलीको देवते, उठना, बैठना, चलना, कराते हैं; ऐसा कलंकरूपकथन, मिथ्यादृष्टिदीर्घसंसारीविना कौन कर सकता है ? और जो तीर्थकरकेवलीके, परम औदारिक शरीर कहते हैं, सो भी इनके ग्रंथोंसें विरुद्ध है. क्योंकि, कायाबोधपाहुडमें औदारिकही कहा है. सो पाठ यह है. ॥ एरिसगुणाहिं सहियं अइसयवंतं सुपरिमलामोअं॥ ओरालीयं च कायं णायवू अरुहपुरुसस्स ॥१॥ भाषार्थः-इन पूर्वोक्त गुणसहित, अतिशयवंत, सुपरिमलआमोदसंयुक्त, औदारिककाया, अरिहंतपुरुषोंकी जाननी. प्रश्नः-स्त्रीको सर्वचारित्र और मोक्ष नही है. उत्तरः-तुमारे मतके शास्त्रोंमेंही, स्त्रीको चारित्र, और मोक्ष होना लिखा है. यतः॥ जइ दंसणेण सुद्धा उत्तामग्गेण सावि संजुत्ता ॥ घोरं चरियं चरित्ता-इत्यादि ७८ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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