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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णयप्रासादकेवली कवलाहार क्यों नहीं करें ? क्योंकि, औदारिकशरीरकी स्थिति कवलाहारविना नहीं हो सकती है. ॥१॥ द्रव्यसंग्रहवृत्तिपाठो यथा ॥ " ॥ सयोगिकेवलिनो यथाख्यातं चारित्रं न तु परमयथाख्यातं चारित्रं चौराभावेपि चौरसंसर्गिवत् मोहोदयाभावेपि योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयतीति ॥" भाषार्थः-सयोगिकेवलीके यथाख्यात चारित्र है, परंतु परमयथाख्यात चारित्र नहीं है. जैसें चोरके अभावसे भी, चोरकी संगतिवाला चोर है; तैसेंही मोहोदयके अभाव हुए भी, योगत्रयका व्यापार चारित्रमें मल उत्पन्न करता है. ॥२॥ प्रवचनसारपाठो यथा ॥ ठाणनिसेज्जविहारा धम्मवदेसो अणिअदवो तेसिं ॥ अरहंताणं काले मायाचारोवू इत्थीणं॥ भाषार्थः-स्थान, निषध्या, विहार, धर्मोपदेश, यह सर्व तिन अरिहंतोंको स्वाभाविक है. स्त्रियोंको मायाचारकीतरें. ॥३॥ उनिहेम-इत्यादि भक्तामरके काव्यमें भगवान् कमलोपरि पाद न्यास, स्थापन करते हैं. “पादौ पदानि तव यत्रजिनेंद्र छत्तः॥” ॥इति वचनात् ॥ ४ ॥ एकीभावस्तोत्रमें भी पादन्यास लिखा है.॥ "पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया तेत्रिलोकीमित्यादि॥” ॥५॥ तीर्थंकरकमलऊपर पादन्यास करते हैं.॥ "तीर्थंकराःकमलोपरिपादौन्यसंतीति" भावपाहुडवृत्तिवचनात्॥६॥ चंद्रप्रभचरित्रमें भगवान्का विहार लिखा है. ॥ "॥ इत्थं विहत्य भगवान् सकलां धरित्रीमित्यादिवचनात्॥"॥७॥ धर्मनाथचरित्रमें भी भगवानका विचरना लिखा है. ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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