SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्विंशस्तम्भः। ३६६ पवित्रिका परिधापनमंत्रो यथा ॥ “पवित्रं दुर्लभं लोके सुरासुरनृवल्लभम् ॥ सुवर्ण हंति पापानि मालिन्यं च न संशयः॥१॥" . तदपीछे उपनीत, मुखसें पंचपरमेष्टिमंत्र पढता हुआ, गंध पुष्प अक्षत धूप दीप नैवेद्यकरके चारों दिशामें जिनप्रतिमाको पूजे। तदपीछे जिनप्रतिमाको प्रदक्षिणाकरके और गुरुको प्रदक्षिणा करके 'नमोस्तु २' कहता हुआ, हाथ जोडके ऐसें कहे ॥ “भगवन् उपनीतोहं ” गुरु कहे " सुष्ट्रपनीतो भव ।” फेर उपनीत ‘नमोस्तु' कहता हुआ नमस्कार करके कहे। “ कृतो मे व्रतबंधः।” गुरु कहे। “ सुकृतोऽस्तु ।” फेर 'नमोस्तु' कहके नमस्कार करके शिष्य कहे “ । भगवन् जातो मे व्रतबंधः । ” गुरु कहे “ । सुजातोऽस्तु ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे। " जातोऽहं ब्राह्मणः । क्षत्रियो वा । वैश्यो वा।” गुरु कहे । " दृढव्रतो भव । दृढसम्यक्त्वो भव । ” फेर शिष्य नमस्कार करके कहे । “ भगवन यदि त्वया कृतो ब्राह्मणोऽहं तदादिश कृत्यं ।” गुरु कहे “अर्हद्गिरा दिशामि।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्ति गर्भ रत्नत्रयममादिष्टं । " गुरु कहे । “आदिष्टं । फेर नमस्कार करके शिष्य । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं मम समादिश । ” गुरु कहे। " समादिशामि।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं मम समार्दिष्टं ।” गुरु कहे । “ समादिष्टं ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं ममानुजानीहि ।” गुरु कहे । “अनुजानामि " फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं ममानुज्ञातं । ” गुरु कहे। " अनुज्ञातं"। फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं मया स्वयं करणीयं ।” गुरु कहे। “करणीयं ” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे । “भगवन् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं मया अन्यैः कारयितव्यं । ” गुरु कहे। “कारयितव्यं ।” फेर नमस्कार करके शिष्य कहे. । “भगवत् नवब्रह्मगुप्तिगर्भ रत्नत्रयं कुर्वतोऽन्ये मया अनु. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy