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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड जैन परम्परानुसार आचार्य सिद्धसेन (प्रथम) ही गुप्तकालीन क्षपणक थे। कहा जाता है कि अमरकोषकार अमरसिंह भी जैन थे और ज्योतिषाचार्य वराहमिहिरि नियुक्तियों के रचयिता जैनाचार्य भद्रबाहु के बड़े भाई थे। दिल्ली के तोमर वंश में अनंगपाल तृतीय (1132 ई0) का राज्यमंत्री नट्टलसाहु बड़ा धर्मात्मा था, जिसने दिल्ली में भ0 आदिनाथ का कलापूर्ण मन्दिर बनवाया था। इसी मन्दिर और उसके आसपास के जैन व हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त करके कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुब्बतुल इस्लाम मस्जिद, वर्तमान कुतुबमीनार के पास बनवाई थी। नट्टलसाहु के आश्रय में श्रीधर ने पार्श्वनाथचरित्र (अपभ्रंश) की रचना की थी। उपेन्द्र अपरनाम कृष्णराज या गजराज ने 9वीं शती के उत्तरार्ध में मालवा देश की धारानगरी में परमार राज्य की स्थापना की थी। उसका उत्तराधिकारी सीयक द्वितीय उपनाम हर्ष, प्रतापी नरेश और स्वतन्त्र राज्य का स्वामी था। अपने पोषित पुत्र मुंज को राज्य देकर 974 ई0 के लगभग सीयक परमार ने एक जैनाचार्य से मुनिदीक्षा लेकर शेष जीवन एक जैन साधु के रूप में व्यतीत किया था। प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों में मुंज के सम्बन्ध में अनेक कथायें मिलती हैं। अनेक संस्कृत कवियों का वह प्रश्रय दाता था, जिनमें जैन कवि धनपाल भी थे। इससे यह स्पष्ट है कि मुंज जैन नहीं तो जैनधर्म का पोषक अवश्य था। मुंज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी भोजदेव परमार (1010-1053 ई0) के समय धारानगरी दि0 जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र थी। अमितगति, माणिक्यनन्दी, नयनन्दि, प्रभाचन्द्र आदि दिग्गज जैनाचार्यों ने भोज से आश्रय और सम्मान प्राप्त किया था। इसी समय धारा के पास नलकच्छपुर (नालछा) में प्रसिद्ध विद्वान् पण्डित प्रवर आशाधर ने एक विशाल विद्यापीठ की स्थापना की थी और 1225 से 1245 के बीच अनेक जैन ग्रन्थों की रचना की थी। ग्वालियर के कच्छपघात या कच्छपघटवंशी राजाओं में सम्राट महिचन्द्र ने 956 ई0 में सुहोनिया में एक जिनमन्दिर बनवाया था। 12वीं शताब्दी के मध्य के लगभग तक कच्छपघात राजाओं का शासन ग्वालियर प्रदेश में चलता रहा। स्वयं ग्वालियर दुर्ग (गोपाचल) में उनके द्वारा प्रतिष्ठित उस काल की तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा आज भी विद्यमान है जो विश्व की एक पत्थर से निर्मित सबसे विशाल पद्मासन मूर्ति है। राजस्थान के मेवाड़ की राजधानी चित्रकूटपुर (वर्तमान चित्तौड़) के राजाओं का कुलधर्म शैव था किन्तु जैन धर्म के प्रति वे बड़े सहिष्णु थे। उनके अनेक मंत्री, दीवान, भण्डारी, सामन्त, सरदार आदि जैन थे। कहा जाता है कि मेवाड़ राज्य में दुर्ग की वृद्धि के लिए जब-जब उसकी नींव रखी जाती थी तो साथ ही एक जैन मन्दिर बनवाने की प्रथा थी। दशवीं शताब्दी में राजा शक्ति कुमार के समय में चित्तौड़ का प्रसिद्ध जैन जयस्तम्भ सम्भवतः मूल रूप में बना था। मेवाड़ के प्रसिद्ध जैन तीर्थ केसरियानाथ (ऋषभदेव) को जैन ही नहीं शैव, वैष्णव और भील लोग आज भी पूजते हैं। बंगाल और कलिंग (उड़ीसा) भी प्राचीन काल से जैनधर्म के गढ़ रहे हैं। बंगाल, बिहार, उड़ीसा के अनेक भागों में प्राचीन जैन श्रावकों के वंशज आज भी हैं, इन्हें आजकल 'सराक' कहा जाता है और For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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